सृजन की ताक़त रखने वाली महिलाओं से दुनिया की संस्कृतियाँ क्यों डरती हैं !

राजीव सुमन

रजस्वला होने की उम्र की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में के प्रवेश-निषिद्ध के संदर्भ से दुनिया भर में और विभिन्न धर्मों में माहवारी को लेकर मान्यताओं की पड़ताल करता है राजीव सुमन का यह आलेख .

अक्तूबर के आखिरी सप्ताह में सोशल मीडिया पर रेहाना ने अपनी एक तस्वीर पोस्ट की थी, ठीक उस समय जब वह अपनी एक दोस्त के साथ सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सबरीमला मंदिर में प्रवेश की कोशिश कर रही थीं. हालांकि, वे मुख्य द्वार तक पहुँचने में सफल रही थीं, लेकिन बाद में प्रचण्ड विरोध की वजह से उन्हें वापस होना पडा था. इस तस्वीर के पोस्ट होने के बाद से अयप्पा भक्तों में खलबली मची हुई है.इस तस्वीर में वो काले कपड़े पहनी हैं और माथे पर चन्दन का लेप है.उनके बैठने के तरीके में उनकी जांघें दिख रही हैं. आरोप है कि पुलिस को रेहाना के ख़िलाफ़ “अश्लीलता प्रदर्शित करने” वाली तस्वीर पोस्ट करने और “अयप्पा भक्तों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने” की शिकायत मिली जिसके बाद उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया है. रेहाना को गिरफ्तार कर 15 दिनों के न्यायिक जांच के लिए भेजा गया. रेहाना पेशे से टेलीकॉम तकनीशियन हैं औरसरकारी टेलीकॉम कंपनी बीएसएनएल में काम करती हैं. साथ ही, एक मॉडल भी हैं.

यह जो घटना है, वह कोई गांधी या आंबेडकर के जमाने की नहीं है. बस दो-चार माह पुरानी है. मान्यताएं अपने समय के समाज की कमजोरियां होती हैं. खासकर, जब वह धर्म से जुडी हों. मूर्ख और भक्त में कोई ख़ास फर्क नहीं होता बस भक्त अनिवार्य रूप से मूर्ख नहीं होते जब बात धार्मिकता की नहीं हो तो. यह पूरा निरर्थक विवाद एक ऐसे समय में है जहां इसकी कोई सार्थकता नहीं थी. इस मसले में सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह सही है, पर राज्य उसे तामील कर पाने में असमर्थ साबित हो रहा है तो सिर्फ अपनी राजनैतिक दुरभिसंधियों और वोट बैंक की राजनीति के कारण. वरना सबरीमला में मौजूद मंदिर के भगवान स्वामी अयप्पा इतने भी कमजोर कुंवारे नहीं हैं कि ‘रजस्वला’ उम्र की महिलाओं के मंदिर प्रवेश कर जाने से उनका कौमार्य भंग हो जाए !

स्त्रियों पर अश्लीलता फैलाने का यह आरोप ख़ास तरह की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संकीर्ण नजरिये की देन है. वरना कोई कारण नहीं कि थुलथुल तोंद, नंगे सीने और खुली जांघों के साथ सबरीमला मंदिर में प्रवेश करने वाले पुरुषों को अश्लील के साथ-साथ फूहड़ ना कहा जाए ! रेहाना को केवल एक सॉफ्ट टार्गेट के रूप में उन हिन्दुत्ववादी संगठनो द्वारा देखा जा रहा है जो उसे मुसलमान के रूप में देख-समझ रहे हैं, वह भी बाहर से. ‘बाहर से’ कहने का अभिप्राय है कि वे दक्षिण में रहनेवाले मुसलमानों, सबरीमाला मंदिर में जाने से पहले मस्जिद में जाने की परम्परा को या उसके ताने-बाने को उत्तर भारत के हिन्दू-मुस्लिम चश्मे से देखने की कवायद में लगे हैं और अपनी राजनितिक रोटी सेंक रहे हैं. वरना, धार्मिक एकता की मिशाल इससे बेहतर नहीं मिलती. इतना ही नहीं १९६५ में बने कानून की धारा 3 भी स्पष्ट रूप से अन्य धर्म या सम्प्रदाय के लोगों को मंदिर में जाकर पूजा करने से नहीं रोकती.

सबरीमला मंदिर जाने से पहले मस्जिद जाते रहे हैं भक्त

सबरीमला के रास्ते में, स्वामी अयप्पा के मंदिर से करीब 60 किलोमीटर पहलेएक छोटा-सा कस्बा पड़ता  है इरुमलै.इरुमलै में एक भव्य सफ़ेद वावर मस्जिद है जहां रुकना सबरीमला केदर्शनार्थियों एक नियम है.

भक्तगण अयप्पा और ‘वावरस्वामी’ की जयकार करते हुए मस्जिद की परिक्रमा करते हैं और वहां से विभूति और काली मिर्च का प्रसाद लेकर ही यात्रा में आगे बढ़ते हैं. यहपरंपरा पिछले 500 साल से भी अधिक समय से चल रही है.मस्जिद कमेटी हर साल सबरीमला मंदिर से अपने रिश्ते का उत्सव मनाती है, इस उत्सव को चंदनकुकुड़म (चंदन-कुमकुम) कहा जाता है.इरुमलै में काफ़ी मुसलमान आबादी है और पहाड़ी की चढ़ाई चढ़कर थके तीर्थयात्री अक्सर आराम करने के लिए किसी मुसलमान के घर रुक जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि वावर एक सूफ़ी संत थे जो भगवान अयप्पा में गहरी श्रद्धा रखते थे. उनकी अयप्पा भक्ति इतनी मशहूर हुई कि सदियों से चली आ रही सबरीमला यात्रा में उनका ठिकाना एक पड़ाव बन गया. तो रेहाना की वजह से जो लोग हिन्दू-मुस्लिम विवाद पैदा करना चाहते हैं उन्हें न तो भारत की धार्मिक-ऐतिहासिक परम्परा का भान है और न ही सबरीमला और वावर के तानेबाने का. केरल सरकार और केरल टूरिज़्म ने इस विशिष्टता को शीर्ष महत्व दे रखा है.

सबरीमला दक्षिण का और केरल का बहुत प्राचीन तीर्थ है. सबरीमला मंदिर का निर्माण 12वीं सदी में पंडालम राजवंश के युवराज मणिकंदन द्वारा कराया गया था. यहाँ सभी धर्मों के लोगों की आस्था है, स्त्रियों की भी, चाहे वो किसी धर्म के क्यों न हों. पर केवल स्त्रियों का प्रवेश वहां वर्जित है, वह भी रजस्वला धारण करने की क्षमता रखनेवाली स्त्रियों का. लेकिन यह वर्जना भी सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद कानूनी तौर पर ख़त्म हो चुकी है.

एक पौराणिक कथा के अनुसार, अयप्पा का जन्म उस स्त्री राक्षस को हराने के लिए हुआ था जिसे कोई भी पराजित नहीं कर पा रहा था. दो पुरुष देवताओं शिव और विष्णु के संयोग से उत्पन्न अयप्पा ने उसे पराजित किया और वह राक्षसी से एक खुबसूरत स्त्री में परिवर्तित हो अयप्पा से शादी का प्रस्ताव दे बैठी. लेकिन अयप्पा ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. फिर भी बार बार प्रणय निवेदन किये जाने पर अयप्पा ने एक प्रस्ताव रखा कि वह उस दिन उससे शादी करेगा जब नए भक्त उनके यहाँ आना बंद कर देंगे..इसलिए भक्तगण किसी रजस्वला क्षमतावाली स्त्री को अयप्पा के पास नहीं आने देना चाहते. उन्हें लगता है कि वही स्त्री रूप धरकर अयप्पा को भ्रष्ट करने आ सकती है..

इसी घटना के बहाने माहवारी  से जुडी विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, परम्पराओं, रुढियों और समाजशास्त्रियों, मानव विज्ञानियों के विचारों को जानने समझने की कोशिश इस लेख के माध्यम से किया गया है. माहवारी  को लेकर दो तरह की धारणाएं वैश्विक समाज में शुरू से रही हैं. एक इसे पवित्रता और संस्कृति के उद्भव के रूप में देखता है और दूसरी धारणा इसे अशुद्धता के रूप में देखती है.

सांस्कृतिक रूप से पवित्र और शक्तिशाली है माहवारी :

रजस्वला, माहवारी  या मेंसेस को लेकर भारतीय धर्म और संस्कृति में ही नहीं वरण दुनिया की तमाम संस्कृतियों में परस्पर विरोधी विचारों का समावेश दिखलाई पड़ता है. कुछ ऐतिहासिक संस्कृतियों में माहवारी  को पवित्र और शक्तिशाली माना जाता है जो मानसिक क्षमताओं में वृद्धि करनेवाला, और बीमारियों को ठीक करने में पर्याप्त सक्षम. चेरोकी जनजाति में मान्यता (चेरोकी दक्षिणपूर्वी वुडलैंड्स, अमेरिका)रही है कि माहवारी  रक्त स्त्री की शक्ति का स्रोत है और इसमे दुश्मनों को नष्ट करने की शक्ति है. प्राचीन रोम में, प्लिनी द एल्डर ने लिखा था कि एक माहवारी का स्राव करती हुई स्त्री अपने शरीर को अनावृत करती है तो वह गड़गड़ाहट, वायुमंडल में बिजली की कड़क को डरा सकती है. अगर वह नग्न होकर मैदान के चारों ओर घूमती है, तो इल्लियाँ,कीड़े-मकोड़े और झींगुर मकई के खेत से भाग जाते हैं. कई परम्पराओं में रजस्वला नंगी स्त्रियों के नाच से बारिश होने की मान्यता है..

माहवारी  रक्त को पुरुषों की शक्ति के लिए विशेष रूप से नुकसानप्रद माना जाता है. अफ्रीका में, माहवारी  रक्त का उपयोग सबसे शक्तिशाली जादू टोने में किया जाता है. शुद्धि और विध्वंस दोनों रूपों में. माया सभ्यता के पौराणिक आख्यानो में माहवारी  की उत्पत्ति को वैवाहिक संबंधोंको नियंत्रित करने वाले सामाजिक नियमों के उल्लंघन करने की सजा के रूप में दिखाया गया है. माया चंद्रमा देवी के पुनर्जन्म होने से पहले काला जादू टोन में माहवारी के रक्त सांप और कीड़ों में बदल जाते हैं.

जहां महिलाओं के मासिक रक्त को धर्म से जोड़ा जाता है वहाँ विश्वास यह है कि इसे अलग रखा जाना चाहिए. इस तर्क के अनुसार, जब यह पवित्र रक्त अपवित्र चीजों के संपर्क में आता है तब यह खतरनाक रूप से ‘अशुद्ध’ हो  जाता है. ऐसा माना गया है कि मासिक स्राव करती हुई स्त्री खतरनाक होती है.

कई पारंपरिक धर्म माहवारी  को धार्मिक रूप से अशुद्ध मानते हैं, हालांकि मानवविज्ञानी बताते हैं कि ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ की अवधारनाएं गहराई से जुडी हुई हैं.विभिन्न संस्कृतियां माहवारी  को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखती हैं. पश्चिमी औद्योगिक समाजों मेंमाहवारी  के बारे में कई आचरण नियमो, मानदंडों और बात-व्यवहार में यह विश्वास जताया गया है कि माहवारी  को गोपनीय रखा जाना चाहिए, बल्कि इसके विपरीत,  प्राचीन काल में कई शिकारी-समूह समाजों में, विशेष रूप से अफ्रीका में, माहवारी को बहुत सकारात्मक रूप से स्वीकार किया गया है वह भी बिना किसी तरह की अशुद्धता का भावार्थ रखे.

“मेन्स्ट्रूऐशन” (माहवारी ) शब्द व्युत्पतिपरक रूप से “मून” (चन्द्रमा) से संबंधित है.”मेन्स्ट्रूऐशन” (माहवारी )और “मेंसेस” (मासिक)शब्द लैटिन मेन्सिस (महीना) से व्युत्पन्न हुए हैं, जो ग्रीक भाषा में “मेने” (मून) (चन्द्रमा) और अंग्रेजी शब्दों के ”मंथ” (महीना) और “मून”(चंद्रमा)से जुड़ते हैं.

स्त्री का माहवारी और चंद्रमा की गतिकी का संबंध मिथकों और परंपराओं में एक आनुष्ठानिक आदर्श के रूप में पूरी दुनिया में व्यापक रूप से मान्य है. प्राचीन संस्कृतियों में ऐसा विचार है कि माहवारी  व्यापक ब्रह्मांडीय गतिकी के ताल की साम्यता के साथ होता है या उसे होना चाहिए.यह विचार दुनिया भर के पारंपरिक समुदायों के मिथकों और अनुष्ठानों के केंद्र में सबसे दृढ़ विचारों में से एक है. प्राचीन पौराणिक कथाओं के सबसे व्यापक विश्लेषणों में से एक जो माना जाता है वह क्लाउड लेवी-स्ट्रॉस का थाजोएक फ्रांसीसी मानवविज्ञानी और नृवंशविज्ञानी थे जिनका महत्वपूर्ण काम‘संरचनात्मकता’ और ‘संरचनात्मक मानव विज्ञान’ के सिद्धांत के विकास में था औरजिन्हें “आधुनिक मानव विज्ञान के पिता” के रूप में जाना जाता है, का निष्कर्ष था किएक साथ उत्तर और दक्षिण अमेरिका के मूल मिथकों में पुरुषों की चिंता व्यक्त हुई

 कि जब तक कि महिलाओं के माहवारी  की  अवधि की सावधानीपूर्वक निगरानी नहीं की जाती और ब्रह्माण्ड की गतिकी के साथ नहीं होता, ब्रह्मांड के अराजकता की स्थिति में आने की संभावना बनी रहेगी.

कई पारंपरिक समाजों-संस्कृतियों में प्राकृतिक घटनाओं-ज्वार भाटा,चंद्र गति,मौसमी अवधि औरमाहवारी को एक आदर्श साम्य और लय की संकल्पना के रूप में देखा जाता है जो अपने उच्चतम और समग्र सद्भाव लय में होने पर ऐसा माना जाता है कि आध्यात्मिक शक्ति और प्रजनन क्षमता प्रदान करता है. चन्द्रमा का समय और मासिक चक्र के समय के सम्बन्ध में कई गहन साम्य हैं. बारीक निरिक्षण से चन्द्रमा की एक पूरी गति और माहवारी  के स्राव का समय नियत है (29.1-29.5).

नृतत्व विज्ञानी बकली और गॉटलिब के ‘पार-सांस्कृतीय अध्ययन’ से पता चलता है कि, माहवारी  के बारे में समाज में जो टैबू  है वह लगभग सार्वभौमिक है. इनमें से कई में ‘अशुद्धता की अवधारणाएं’ शामिल हैं तोकई माहवारी  परंपराएं “एकदम अलग, यहाँ तक कि अर्थों और प्रयोजनों में विपरीत अर्थ देने वाली हैं.” कुछ पारंपरिक समाजों में, माहवारी के कर्मकांडी अनुष्ठानो के पीछे यह पाया गया है कि महिलाएं इससे आनंदित होती हैं क्योंकि इसके बहाने वे पुरुषों से कुछ दिनों दूर रहती हैं, अनचाहे यौन संबंधों, घरेलु दबाओं और कामों से. यह एक तरह से इन सब चीजों से महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करता है और उन्हें मजबूत बनाता है.

नृतत्व विज्ञानी वेन मैग्गी द्वारा एक जीवंत उदाहरण प्रदान किया गया है, जो कलशा घाटी (उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान) में महिलाओं की सामुदायिक बशली (सामूहिक बड़ामाहवारी  गृह) को उनके ‘सबसे पवित्र स्थान’ के रूप में वर्णित करता है, जो पुरुषों द्वारा सम्मानित हैऔर महिलाओं द्वारा सभी स्त्री जरूरतों के रख-रखावके एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित है जहां बहनापा और शक्ति की एकजुटता प्रदर्शित हो सके. एक सांस्कृतिक विकासवादी शोधवृति समवायके मुताबिक, माहवारी  के रक्त को समय-समय पर पवित्र रूप से चिह्नित करने के विचार को महिला हितों द्वारा अपने हित में स्थापित किया गया था, हालांकि बाद में, मवेशी स्वामित्व और पितृसत्तात्मक शक्ति के उदय के साथ, वही मान्यताएं औरटैबू महिलाओं के उत्पीड़न को तेज करने के लिए धार्मिक मठाधीशों द्वारा उपयोग किया गया था.

सांस्कृतिक सिद्धान्तकारों, खासकरअमेरिका की 78 वर्षीया जूडी ग्रान जिनका लेखन स्त्रीवाद और समलैंगिकता पर रहा है, का मानना है कि ‘मेटाफॉर्मिक सिद्धांत’ (वर्तमान समय की भौतिक संस्कृति का विस्तार प्राचीन माहवारी  संबंधी अनुष्ठानों में निहित है, जिसे “मेटाफॉर्म” कहा जाता है. मेटाफॉर्म माहवारी  से संबंधित उभरते ज्ञान को शामिल करने के लिए बनाई गई अनुष्ठान, संस्कार, मिथक, विचार, या कहानियां हैं.)संस्कृति के निर्माण में और मनुष्यों के सबसे शुरूआती अनुष्ठानों के रूप में माहवारी केंद्रीय व्यवस्थापक विचार के रूप में महत्व रखता है.

समाजशास्त्री एमाइल दुर्खेम (Emile Durkhem)का तर्क है कि मनुष्य का धर्म पूरी तरह से माहवारी  के संबंध में उभरा है. उनका कहना है कि एक निश्चित प्रकार की कार्रवाई-सामूहिक आनुष्ठानिक कार्रवाई- अलग-अलग मानव भाषा और विचार के अलावा एक साथ टोटेमवाद, कानून, विजातीय संबंध और नातेदारी स्थापित कर सका.यह सबकुछ शुरू हुआजब रक्त के प्रवाह ने समय-समय पर लिंगों के बीचके संबंधों को तोड़ दिया. ‘द नेचर एंड ओरिजिन ऑफ़ टैबू’में दुर्खेम लिखते हैं कि  ‘सभी रक्त भयानक हैं’,  ‘और इसके साथ संपर्क रोकने के लिए सभी प्रकार के टैबूकी शुरुआत हुई’.माहवारी  के दौरान, मादाएं ‘एक प्रकार की प्रतिकूल कार्रवाई का प्रयोग करती हैं जो अन्य लिंग को उनसे दूर रखती है’.यह वही खून महिलाओं और जानवरों की नसों के माध्यम से समान रूप से चल रहा था, जो ‘टोटेमिक’-भाग-मानव, भाग-पशु-पूर्वज के प्राणियों में रक्त की अंतिम उत्पत्ति का सुझाव देते थे. एक बार जबमाहवारी का रक्त संबंध शिकार के रक्त से जोड़ दिया गया, तब शिकारी के लिए कुछ जानवरों का सम्मान करने के लिए तर्कसंगत रूप से संभव हो गया जैसे कि वे अपने रिश्तेदार थे, यह ‘टोटेमवाद’ का सार है. समूह के साझा रक्त के भीतर इनके’भगवान’ या ‘टोटेम’ का निवास था, ‘जिससे यह पता चलता है कि रक्त एक दिव्य चीज है.जब यह खत्म हो जाता है, भगवान खत्म हो रहा है’.

विभिन्न धर्मों में स्त्रियों के मासिक रक्त स्राव की मान्यताएं और विचार:

बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म (थेरावाद या हीनायन) में माहवारी  को “एकप्राकृतिक शारीरिक उत्सर्जनकी क्रिया के रूप में देखा जाता है जिसमे महिलाओं को हर महीनेजाना पड़ता है, इससे कुछ भी कम या ज्यादा के रूप में नहीं”. इस अर्थ में बौद्ध धर्म में इसमे किसी भी तरह का मूल्य आरोपित नहीं किया गया है. न शुद्धता-अशुद्धता का और न ही पवित्रता-अपवित्रता का. हालांकि, जापान में बौद्ध धर्म की कुछ शाखाओं में, माहवारी  के दौरान महिलाओं को मंदिरों में भाग लेने से प्रतिबंधित करता है. निचरेन बौद्ध धर्म (जापान) में माहवारी  को धार्मिक अभ्यास में आध्यात्मिक बाधा नहीं माना जाता है,हालांकि माहवारी  वाली महिला अपनी सुविधा और आराम के लिए धार्मिक अनुष्ठानों में जाने या नहीं जाने का वरन सकती है।

ईसाई धर्म
अधिकांश ईसाई सम्प्रदायों में माहवारी  से संबंधित किसी भी विशिष्ट अनुष्ठान या नियमों का पालन नहीं किया जाता है. कुछ सम्प्रदायों में ‘लेविटीस’ के पवित्रता संहिता खंड में निर्धारित नियमों का पालन माहवारी  के संबंध में किया जाता है. यहकुछ हद तक यहूदी धर्म के अनुष्ठान “निदाह”(Niddah) के समान हैं.कुछ चर्च के पादरी ने अशुद्धता की धारणा के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार करने का बचाव किया. अन्य पादरियों का मानना है कि पुराने नियम के हिस्से के रूप में शुद्धता कानूनों को त्याग दिया जाना चाहिए.

माहवारी में नेपाली महिलायें एकांतवास को विवश की जाती हैं

परम्परावादी चर्च
पूर्व के अधिकाँश रूढ़िवादी चर्च के कई अधिकारियों और ओरिएंटल रूढ़िवादी चर्च (जिसे रूसी, यूक्रेनी, यूनानी और भारतीय रूढ़िवादी चर्च भी कहा जाता है) के कुछ हिस्सों सहित रोमन कैथोलिक चर्च से अलग कुछ ईसाई संप्रदायों ने महिलाओं को सलाह दी कि वे समुदाय के साथ माहवारी  की अवधि के दौरान समागम न करें.
रूढ़िवादी चर्च के कंज़र्वेटिव / परंपरावादी सदस्य माहवारी  के दौरान पवित्र कम्युनियन से दूर रहने की प्राचीन प्रथा का पालन करते हैं.ग्रीस, रूस और अन्य ऐतिहासिक रूप से रूढ़िवादी ईसाई देशों में यह काफी आम अभ्यास है.हालांकि, ज्यादातर गैर-रूढ़िवादी देशों में- खासकर यूरोप और उत्तरी अमेरिका में-महिलाओं की अधिसंख्य आबादी इस प्राचीन मान्यता का अभ्यास नहीं करती है,हालांकि कुछ संख्या ऐसी महिलाओं की है जो इस प्रथा को अभी भी मानती हैं.

हिन्दू धर्म
हिंदू धर्म में, माहवारी  महिलाओं को परंपरागत तौर पर अनुचित रूप से अशुद्ध मानता है और इस दौरान के कुछ सख्त नियमों के पालन का आदेश देता है. माहवारी  के दौरान, महिलाओं को “रसोई और मंदिरों में प्रवेश करने”, फूल पहनने, श्रृंगार करने,यौन संबंध रखने या अन्य पुरुषों या महिलाओं को छूने की मनाही करता है. महिलाएं खुद को अशुद्ध, संक्रमित और प्रदूषित के रूप में देखें और स्वयं को अलग-थलग रखें. लेकिन इसी हिन्दू धर्म में शक्ति की पूजा के रूप में आसाम के कामख्या मंदिर में मासिक रक्त को देवी के प्रसाद के रूप में देखा जाता है और इसका उत्सव मनाया जाता है.भारत के असम में जून में आयोजित वार्षिक प्रजनन त्योहार अंबाबाची मेला के दौरान पृथ्वी का माहवारी  मनाया जाता है. अंबुबाची के दौरान, कामख्या मंदिर में देवी कामख्या के वार्षिक माहवारी  की पूजा की जाती है.

इसलाम
माहवारी  के दौरान, महिलाओं को इबादत या प्रार्थना करने से मनाही है, रमजान का उपवास नहीं करना चाहिए. माहवारी  के दौरान तीर्थयात्रा की अनुमति है किन्तु काबा की परिक्रमा निषिद्ध है. माहवारी  की अवधि के दौरान उन्हें विशेष सम्मान और मान दिया गया है. उन्हें किसी भी महत्वपूर्ण उद्देश्य के बिना मस्जिद की प्रार्थना स्थल में प्रवेश नहीं करने की सलाह दी जाती है, लेकिन उन्हें मुसलमानों की सभा और त्यौहारों ईद में उपस्थित होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. इस अवधि के बाद, एक स्नान (गुस्ल)जरुरी है. कुरान की पारंपरिक इस्लामी व्याख्या एक महिला की माहवारी  अवधि के दौरान संभोग को रोकती है, लेकिन भौतिक अंतरंगता को नहीं.

यहूदी धर्म
यहूदी धर्म में, माहवारी  के दौरान एक महिला को “निदाह”(Niddah) कहा जाता है और कुछ कार्यों से इस दौरान उन्हें प्रतिबंधित किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, यहूदी “तोराह”(Torah)(यहूदी धर्म में ‘तोराह’ कई अर्थों की एक श्रृंखला लिए हुए है.किन्तु सामान्य रूप से तनख की 24 पुस्तकों की पहली पांच किताबों (पेंटाटेच) से इसका मतलब किया जाता हैजो आमतौर पर रब्बीनिक टिप्पणियों के साथ मुद्रित होती हैं. इन सभी अर्थों के लिए तोराह में यहूदी लोगों की उत्पत्ति जिसमें नैतिक और धार्मिक दायित्वों के एक समूह में शामिल जीवन का एक तरीका और नागरिक कानूनशामिल है.) माहवारी  वाली महिला के साथ यौन संभोग को रोकता है. “निदाह” का अनुष्ठान बहिष्कार माहवारी  के दौरान और उसके बाद लगभग एक सप्ताह तक उस महिला पर लागू होता है, जब तक कि वह खुद को एक ‘मिक्वाह’(Mikvah) ( एक तरह का आनुष्ठानिक स्नान) से पवित्र न कर ले, जो मूल रूप से केवल विवाहित महिलाओं पर लागू है. इस दौरान, एक विवाहित जोड़े को यौन संभोग और शारीरिक अंतरंगता से बचना चाहिए. रूढ़िवादी यहूदी धर्म इस अवधि के दौरान महिलाओं और पुरुषों को एक-दूसरे को छूने या चीजों के आदान-प्रदान से रोकता है. रूढ़िवादी यहूदी इस नियम का पालन आज भी करते हैं, जबकि इसी धर्म की अन्य शाखाओं के अधिकाँश यहूदी इन मान्यताओं को नहीं मानते.तोराह की तीसरी किताब ‘लेविटीस’और ओल्ड टेस्टामेंट में माहवारी स्त्रियों को धार्मिक रूप से अशुद्ध माना जाता है – “जो भी उसे छूता है वह शाम तक अशुद्ध रहेगा” (नया अंतर्राष्ट्रीय संस्करण).माहवारी  वाली महिला को छूना, उस वस्तु को छूना जिस पर वह बैठी या लेटी थी या उसके साथ संभोग करने से भी व्यक्ति धार्मिक रूप से अशुद्ध हो जाता है. आधुनिक यहूदी धर्म में इन नियमों को किस हद तक माना जाता है वह उसकी रूढ़िवादिता पर निर्भर है.

बहाई विश्वास
बहाई विश्वास के संस्थापक बहाउलह, किताब-ए-अकदास में लोगों और चीजों की आनुष्ठानिक अशुद्धता के सभी रूपों को नकारते हुए स्वच्छता और आध्यात्मिक शुद्धता के महत्व पर बल दिया.माहवारी  वाली महिलाओं को प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित किया और उपवास करने की व्यर्थता को बताया. प्रार्थना की जगह कविता पढ़ने के लिए (स्वैच्छिक) विकल्प दिया.

जैन धर्म
कई महत्वपूर्ण जैन ग्रंथों में महिला के माहवारी  को अशुद्ध माना गया है. ऐसा माना गया है कि माहवारी  में होने वाला रक्तस्राव शरीर के भीतर सूक्ष्म जीवों को मारने के लिए होता है, जिससे मादा शरीर नर शरीर के मुकाबले कम हिंसक बन जाता है. हालांकि,इस विचार में कोई वैज्ञानिकता नहीं है. जैन धर्म महिलाओं को माहवारी  के दौरान खाना बनाने या मंदिर में जाने की इजाजत नहीं देता है.

शिंतो धर्म
जापान के समाज में, शिंटो धर्म आज भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.“कामी” (Kami),वे आत्माएं या घटनाएं हैं जिन्हें शिंटो धर्म में पूजा जाता है. वे भूमि के तत्व, प्रकृति की ताकतों के साथ-साथ प्राणियों और गुणों को व्यक्त कर सकने वाले कुछ भी हो सकते हैं; वे मृत व्यक्तियों के आत्मा भी हो सकते हैं. कई कामी को पुराने कुलों के प्राचीन पूर्वज माना जाता है. शिंतो धर्म में ऐसी मान्यता है कि ये कामी आपकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं करेंगे यदि आपके वस्त्र पर रक्त के निशान, गंदगी या मृत्यु का अपराध किया है.माहवारी  पूरी तरह से खून नहीं है, यह प्राचीन जापान को पता नहीं था. नतीजतन, माहवारी  की महिलाएं को माहवारी  की अवधि के दौरान किसी भी कामी मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं थीं. आज भी, महिलाओं को माहवारी  के दौरान शिंतो समाधियों और  मंदिरों में प्रवेश करने की इजाजत नहीं है. कुछ मामलों में, महिलाओं को ‘अशुद्धता’ के कारण पवित्र पहाड़ों के शीर्ष पर चढ़ने से पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके अलावा, इस परंपरा को इस विश्वास में कुछ हद तक जीवित रखा जाता है कि गर्भाशय के अन्दर से निकालने वाला स्राव एक प्रकार की मौत है.जापान को इतना साफ-सुथरा और घरों को स्वच्छ रखने के पीछे कामी के इस  सिद्धांत को कारण के रूप में देखा जा सकता है.

सिख धर्म
सिख धर्म में, महिला को मनुष्य के बराबर दर्जा दिया जाता है और मनुष्य के रूप में शुद्ध माना जाता है. सिख गुरु सिखाते हैं कि कोई अपने शरीर को धोकर शुद्ध नहीं हो सकता है. मन की शुद्धता असली शुद्धता है. उन्हें शुद्ध नहीं कहा जाता हैजो केवल अपने शरीर को धो लेने मात्र को शुद्ध समझ लेते हैं. सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानाक ने माहवारी  के दौरान महिलाओं को अशुद्ध मानने की प्रथा की निंदा की.
सिख धर्म में भगवान के नाम पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है. आपके कपड़े खून से सने हों, या नहीं हों.चाहे माहवारी  के रक्त से दागदार हो, ये बातें आध्यात्मिक महत्व के नहीं हैं. इस प्रकार, माहवारी  के दौरान किसी महिला पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता है. वह गुरुद्वारा जाने, प्रार्थनाओं में भाग लेने और सेवा करने के लिए स्वतंत्र है.
 स्त्रियों के माहवारी  को लेकर इन भिन्न और परस्पर विरोधी विचार रखने वाले धर्मो, सम्प्रदायों, समाजों ने मूलतः स्त्रियों को काबू में रखने और पितृसत्ता को मजबूत और सुचारू बनाए रखने की कवायद में ही इस तरह के रीती-रिवाजों को ज़िंदा रखा हुआ है. किन्तु आधुनिक समय में इसका विरोध एक आन्दोलन और सामूहिक प्रतिरोध में देखा जा सकता है. हम देखते हैं कि 1970के दशक से, विभिन्न कला रूपों ने माहवारी  के विषय को छूना और अपने शो में शामिल करना शुरू दिया था.कुछ कलाकारों, लेखकों और कार्यकर्ताओं की एक नई पीढ़ी ने स्त्रियों के माहवारी  टैबू को एक उत्सव में परिवर्तित कर दिया था.स्त्री मुक्ति आंदोलनो के साथ मिलकर, जुडी शिकागो के “रेड फ्लैग” आर्टशो ने राजनितिक और सांस्कृतिक रुढ़िवादियों पर करारा प्रहार किया. इस शो में “एक महिला खून से सना टैम्पन अपनी योनि के भीतर से हाथ सेपकड़कर निकाल रही है’. जूडी शिकागो का 1971 का यह कला दृश्य उस वक़्त आलोचना के केंद्र में था. इसने महिलाओं के प्रति और खासकर माहवारी  के दौरान महिलाओं के एलियनेशन और उनके साथ क्रूरता और भेदभाव पर कठोर चोट किया. 1970 के दशक का “रेड फ्लेग” शायद पहला कला रूप था जिसने इतनी कठोरता के साथ इस मुद्दे को उठाया था. जूडी शिकागोदुनिया की सबसे अग्रणी नारीवादी कलाकारों में थीं जिन्होंने, 1998 में इसका प्रिंट शिकागो के म्यूजियम ऑफ़ मेंसट्रूएशन को दान करदिया. उनकी कुछ अन्य कलाकृतियां ‘डिनर पार्टी’,  ‘बर्थ प्रोजेक्ट’, ‘होलोकॉस्ट प्रोजेक्ट’ और ‘मेन्सट्रूएशन बाथरूम’ हैं जो स्त्री के माहवारी  और सामाजिक-सांस्कृतिक टैबू के खिलाफ एक कला आन्दोलन को मजबूत करता है.

“इस रक्त को बहने दें, मासिक रक्त का कलात्मक पुनरुत्थान” थीम से कई प्रदर्शन उस दौरान हुए जो ज्यादातर स्त्रियों के शारीरिक अनुभव के साथ थोपे गए सामाजिक टैबू को कम करने का प्रयास था.वर्तमान में एक कलाकार एच प्लेविस ने अपनेमाहवारी  रक्त को एकत्र कर उसे जेली के साथ मिश्रित किया और इसे एक खरगोश की शक्ल दिया.वह कहती हैं,”मैंने सोचा कि जेली एक अच्छा पदार्थ है क्योंकि यह मुझे अपनी माहवारी  में प्लाज्मा की याद दिलाता था,”. प्लेविस के लिए, उसका खून कला का एक टुकड़ा बन गया था. उनके एक शो “कर्नेस्की’ज इनक्रेडिबल ब्लीडिंग वीमेन”जो ‘माहवारी  जादू है’ के थीम पर खेला गया शो था, उसमें यह ‘खरगोश’ भी शामिल था.

न्यू ब्लड: थर्ड वेव फेमिनिज्म एंड द पॉलिटिक्स ऑफ मेनस्ट्रूशन कीलेखिका क्रिस बॉबेल कहती हैं, “आम तौर पर, माहवारी  आन्दोलन माहवारी  की शर्मिंदगी का प्रतिरोध करने और ज्ञान एवं देखभाल करने के विकल्पों के  विस्तार का प्रयास करती है.” उनका मानना ​​है कि कला परिवर्तन शुरू करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है.इस तरह की कला उत्तेजक रूप से दर्शकों को माहवारी  के बारे में उनकी धारणाओं और सामाजिक टैबू को चुनौती देती है. यह शक्तिशाली कला है औरउन मान्यताओं को खारिज करता है जो समाज में माहवारी  के बारे में प्रचलित है.माहवारी  एक जैविक प्रक्रिया है, लेकिन इसका अर्थ भेदभावपूर्ण है और क्योंकि यह काफी हद तक महिलओं का अनुभव है, उसे मूल्यहीन समझ लिया गया है.कार्नेस्की का मानना ​​है कि कला और उसकी उपसंस्कृति माहवारी  से जुडी चुनौतीपूर्ण मानदंडों के लिए महत्वपूर्ण हैं.“महिलाओं के रूप में, हमने एक ऐसी दुश्मन संस्कृति को अपनाया हुआ है जो स्त्रियों से नफ़रत करता है, जिसने माहवारी  को निषिद्ध किया हुआ है और जो कहता है कि यह गंदा है.हमें अपने इस सम्मान को पुनः प्राप्त करना बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शरीर के सबसे शक्तिशाली चीजों में से एक है और हमें इसका जश्न मनाना  चाहिए. “

अंत में, हमें प्रख्यात नारीवादी सुसान बी एंथनी के इस सैद्धांतिकी से सहमति रखते हुए लड़ाई को जारी रखने की जरुरत है, जिसमे वह लोकतन्त में स्त्री और पुरुष के लिए दोटूक संबंधो की बात करते हुए कहती हैं, “पुरुष, उसके अधिकार, और इससे ज्यादा कुछ नहीं, स्त्री,उसके अधिकार, और इससे कम कुछ नहीं”. हमें भी इसी फ्रेम में स्त्री मुद्दों के साथ आगे बढ़ना चाहिए.

सन्दर्भ सूची:
1.Bede, the Venerable Saint. Bede’s Ecclesiastical History of the English People. Edited by Bertram Colgrave and R. A. B. Mynors. Oxford: Clarendon, 1969.
2. Buckley, Thomas, and Alma Gottlieb. Blood Magic: The Anthropology of Menstruation. Berkeley: University of California Press, 1988.
3. Delaney, Janice, Mary Jane Lupton, and Emily Toth. The Curse: A Cultural History of Menstruation. New York: E. P. Dutton, 1976.
4. Grahn, Judy. Blood, Bread, and Roses: How Menstruation Created the World. Boston: Beacon Press, 1993.
5.  Houppert, Karen . The Curse: Confronting the Last Unmentionable Taboo; Menstruation. New York: Farrar, Straus, and Giroux, 1999.
6.  Knight, Chris. Blood Relations: Menstruation and the Origins of Culture. New Haven, Conn.: Yale University Press, 1991.
7.  Lander, Louise. Images of Bleeding: Menstruation as Ideology. New York: Orlando Press, 1988.
8.  Lupton, Mary Jane. Menstruation and Psychoanalysis. Urbana and Chicago: University of Illinois Press, 1993.
9.  Maclean, Ian. The Renaissance Notions of Woman: A Study in the Fortunes of Scholasticism and Medical Science in European Intellectual Life. Cambridge, U.K.: Cambridge University Press, 1980.
10. Ruether, Rosemary Radford. “Women’s Body and Blood: The Sacred and the Impure.” In Through the Devil’s Gateway: Women, Religion, and Taboo, edited by Alison Joseph. London: SPCK, 1990.
11.  Untouchability – Menstrual Taboos – Bibliography – Menstruation, Press, University, and Blood- JRank Articles
12.  The Emergence of Metaformic Consciousness”www.metaformia.org. Retrieved 2018-01-17.
13.  Lévi-Strauss, C. 1978. The Origin of Table Manners. Introduction to a Science of Mythology 3.London: Cape.
14. Durkheim, E. 1963. [1898] La prohibition de l’incesteetsesorigines. L’AnnéeSociologique 1: 1-70. Reprinted as Incest. The nature and origin of the taboo, trans. E. Sagarin. New York: Stuart.
15. DharmacariJnanavira, “A Mirror for Women? Reflections of the Feminine in Japanese Buddhism”Western Buddhist Review4, retrieved 28 May 2006.
16.  “Should cloth be reckoned impure if blood-stained, How may minds of such be deemed pure, who suck the blood of mankind? Says Nanak: With a pure heart and tongue God’s Name you utter: All else is worldly show, and false deeds.” (Guru Granth Sahib Ji, pg. 140).
17.  Knight, C. (1995). Blood relations: Menstruation and the origins of Culture. London & New Haven: Yale University Press. p. 443. Re-drawn after Wright, B. J. (1968). Rock Art of the Pilbara Region, North-west Australia. Canberra: Australian Institute of Aboriginal Studies. fig. 112.

राजीव सुमन स्त्रीकाल के सम्पादन मंडल के सदस्य हैं.

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles