जाति, जेंडर, राजनीति और दलित मुक्ति का प्रश्न: कोविंद बनाम कुमार

रतनलाल 


समाज और संस्थानों में भले ही दलितों का शोषण, भेदभाव और अत्याचार बदस्तूर जारी हो, लेकिन राजनीति में ‘दलित’ शब्द अब तक ब्रांड वैल्यू बनाए हुए है, इसका बाज़ार गर्म है. कम से कम इतना तो मानना पड़ेगा कि डॉ. आंबेडकर और संविधान द्वारा प्रदत राजनीतिक समानता अर्थात् एक व्यक्ति और एक वोट के अधिकार ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को विवश किया है कि सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन सदियों से उपेक्षित जमात को स्वीकार करे.

भारत में एक व्यक्ति बहुल अस्मिताओं के साथ जन्म लेता है, जिसमें सबसे प्रमुख जातिगत पहचान है. ‘जाति’ जन्मना है और ‘वर्ग’ कर्मणा. धर्म, क्षेत्र, राष्ट्रीयता, भाषा, वर्ग इत्यादि बदले जा सकते हैं, पर जाति नहीं. गर्भ-धारण से लेकर देहावसान तक जाति वजूद का हिस्सा बनी रहती है.भारतीय लोकशाही की एक दिलचस्प त्रासदी है – जब कोई ‘गैर-दलित’ किसी सार्वजानिक संस्था के लिए उम्मीदवार होता है या चुना जाता है तब उसके जातीय पहचान की नहीं बल्कि उसके तथाकथित ‘गुणों’, अनुभवों और ‘काबिलियत’ की चर्चा होती है. लेकिन यदि कोई अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग से आए तो उसके समुदाय की चर्चा पहले होती है. इसके ऐतिहासिक कारण हैं. ग़ैर-दलित के लिए यह उम्मीदवारी या अधिकार नैसर्गिक मान लिया जाता है, अर्थात यह उसका जन्मजात अधिकार है. ‘दलितों’ का यह अधिकार नहीं था ख़बर बन जाती है।

बहरहाल, 19 जून यानी सोमवार, को राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन ने श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया, जो अगले तीन दिन तक मीडिया से लेकर चौक-चौराहों तक चर्चा का विषय रहा. 22 जून यानी बृहस्पतिवार को UPA की ओर से मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना कर तुरूप का पत्ता खेला. कई मामलों में यह चुनाव दिलचस्प होने वाला है – विशेष रूप से जाति और जेंडर के प्रश्न को लेकर. ज़रा दोनों उम्मीदवारों के अनुभव और परिचय पर एक नज़र डालें।

दोनों उम्मीदवार लगभग एक ही आयु वर्ग के हैं। मीरा कुमार स्वतंत्रता-सेनानी व भारत के पूर्व प्रधान-मंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं. राजनीति में आने से पहले मीरा कुमार कुछ वर्षों तक भारतीय विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हैं. बिजनौर से पहली बार 1985 में सांसद बनी, पाँच बार सांसद रह चुकी हैं। इसके साथ केन्द्रीय मंत्री और लोकसभा स्पीकर होने का अनुभव भी है – पहली महिला और दूसरी दलित लोक सभा स्पीकर. रामनाथ कोविंद उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं. पेशे से वकील हैं, लोकसभा या विधान सभा में नहीं आए, 1994-2006 तक राज्यसभा के सांसद बेशक रहे हैं और अभी बिहार के राज्यपाल हैं.

चूँकि इस चुनाव की उम्मीदवारी में दलित अस्मिता का खेल खेला जा रहा है, इसलिए जातिगत समीक्षा ज़रुरी लगती है. मीरा कुमार चमार/जाटव जाति से हैं, जो पूरे भारत में अनुसूचित वर्ग से सम्बद्ध हैं. रामनाथ कोविंद, कोरी/कोली जाति से हैं जो उत्तर प्रदेश से अनुसूचित जाति से सम्बद्ध हैं. कई प्रदेशों में उनकी जाति पिछड़े वर्ग से सम्बंधित है, जैसा कि गुजरात भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघाणी बाकायदा पोस्टर निकाल कर यह प्रचार कर रहे हैं कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार श्री रामनाथ कोविंद OBC समुदाय के एक प्रतिष्ठित नेता हैं.
बहरहाल, दोनों उम्मीदवारों में एक बात कॉमन है – दोनों दलित आन्दोलन या किसी भी प्रगतिशील आन्दोलन  के उत्पाद नहीं है. एक को यदि विरासती कांग्रेसी दलित नेता कहा जा सकता है तो दूसरे को कागज़ी भाजपाई दलित नेता!

लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या राष्ट्रपति जैसे पद की उम्मीदवारी के लिए उम्मीदवार की घोषणा करते समय उसकी जातीय पहचान की घोषणा ज़रुरी थी? क्या किसी गैर-दलित की उम्मीदवारी के मामले में ऐसा कभी हुआ? फिर, 19 जून 2017 को कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा करते समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह को क्यों कहना पड़ा कि रामनाथ कोविंद दलित समाज से उठकर आए हैं और उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए बहुत काम किया है. श्री शाह सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. इसलिए उनकी यह घोषणा कहीं रोहित वेमुला, उना, और सहारनपुर की घटनाओं से उपजे दलित आक्रोश, जिसकी अभिव्यक्ति 21 मई और 18 जून की जंतर मंतर की ऐतिहासिक और अप्रत्याशित रैली में देखी गई, के प्रति हताशा का परिणाम तो नहीं था? क्या कोविंद, सरकार और भाजपा के विरुद्ध उभरे दलित आक्रोश को शांत करने की रणनीति के प्रतीक स्वरुप पेश किए गए?  जाहिर है इन घटनाओं के अलावा अबाध निजीकरण और आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना से दलित वर्ग आक्रोशित  तो है ही. इन मुद्दों पर दलित नेताओं की चुप्पी ने पूना पैक्ट की याद ताज़ा कर दी है।

सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में अपने जलाये गये घर में दलित महिला

अब प्रश्न है कि क्या किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बनना दलित मुक्ति का पर्याय है ? क्या इससे दलितों के सम्मान, सुरक्षा, रोज़गार, अधिकार की समस्या हल हो जाएगी? यदि नहीं तो ज़ाहिर है इस तरह किसी व्यक्ति की जाति को प्राथमिकता देकर उम्मीदवार बनाने का महत्त्व सिर्फ शृंगारिक ही है – व्यक्तिगत मुक्ति संभव है, लेकिन जमात की मुक्ति नहीं! इस परंपरा की जड़ें भारतीय इतिहास में देखी जा सकती है – ‘शूद्र’ के राजा बनने के बाद ‘पुरोहित’ घोषणा करता है अब आप शूद्र नहीं क्षत्रिय हुए और आपका धर्म है वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करना। नन्द, मौर्य से लेकर शिवाजी तक में इस परंपरा के साक्ष्य देख सकते हैं। यह अकारण नहीं था कि शिवाजी को काशी के ब्राह्मण के बाएँ पैर के अँगूठे से राजतिलक करानी पड़ी थी।

लोकशाही की मर्यादा है – किसी न किसी को तो चुनना है. मायावती ने अपने वादे के अनुसार मीरा कुमार के समर्थन में घोषणा कर दी है. बिहार के दलित नेता रामविलास पासवान ने घोषणा की थी कि कोविंद का विरोध दलित का विरोध समझा जायेगा, अब उन्हें बताना होगा कि क्या मीरा कुमार का विरोध दलित महिला का विरोध होगा या नहीं? बिहार में महिला ‘सशक्तिकरण’ के प्रतीक और महादलितों के ‘शुभचिंतक’, कांग्रेस के गठबंधन में चुनाव जीतने और सरकार चलाने वाले श्री नीतीश कुमार के राजनीतिक व्याकरण में राजेंद्र प्रसाद के बाद बिहार से दूसरी राष्ट्रपति उम्मीदवार जगजीवन बाबू की बेटी ‘महादलित’ महिला मीरा कुमार कहाँ फ़िट बैठती हैं? महिला आरक्षण और सशक्तिकरण पर मुखर आवाज़ बुलंद करने वालीं सुषमा स्वराज जैसे नेताओं का निर्णय भी दिलचस्प होगा – पार्टी लाइन या महिला? दिलचस्प यह भी है की अस्मिता के इस ‘युद्ध’ में जस्टिस कर्णंन को कहीं भुला दिए जाने की साजिश की कोशिश भी है!!!

यह आलेख जनसत्ता में भी प्रकाशित हुआ है. 

लेखक हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हैं. संपर्क: 9818426159

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles