अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है

राजेन्द्र राव 


( प्रज्ञा पांडे के अतिथि सम्पादन में हिन्दी की पत्रिका ‘ निकट ‘ ने स्त्री -शुचितावाद और विवाह की व्यवस्था पर एक परिचर्चा आयोजित की है . निकट से साभार हम उस परिचर्चा को क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं , आज वरिष्ठ साहित्यकार एवं पुनर्नवा के संपादक राजेन्द्र राव  के जवाब .  इस परिचर्चा के  अन्य  विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें :  ) 



जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन 

वह हमेशा  रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे 



अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा 
बकौल सिमोन द बोउआर “स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है ” आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरुप क्या  है।

सभी स्त्रियां किसी सांचे में ढ़ाल कर बनाई जाती हों ऎसा नहीं है।हां पितृसत्तात्मक समाज में कुछ रूढ़ियां हैं जो सामाजिक दबाव में चली आ रही हैं।धीरे धीरे बदलाव भी आ रहा है,बहुत सी स्त्रियां अपने दम खम पर इस कैद से बाहर आ रही हैं।आदिम स्वरूप तो यहां अप्रासंगिक है मगर मुखर होती मुक्तिकामिता जरूर दिशासूचक कही जा सकती है।

क्या दैहिक शुचिता की अवधारणा  स्त्री के खिलाफ कोई साजिश है ?

शुचिता चाहे दैहिक हो या आत्मिक मानव के लिए काम्य है।अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है।

समाज  के सन्दर्भ में   शुचितवाद और  वर्जनाओं को किस  तरह परिभाषित किया जाए ? 

प्रत्येक समाज के अपने कुछ नियम होते हैं,आचरण संहिताएं होती हैंं।ये संहिताएं समय समय पर परिवर्तित होती रहती हैं।गौर से देखें तो हर वर्जना के पीछे कुछ इतिहास होता है,कुछ घटनाएं होती हैं।मैं नहीं समझता कि कोई सामाजिक निषेध किसी को शोषित या उत्पीड़ित करने के उद्देश्य से लागू किया जाता होगा,हां प्रकारांतर में भले ही वह अन्याय और अनीतिपूर्ण सिद्ध हो जाए।यह मानना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है कि स्त्रियों को पूरी तरह सभी प्रकार की वर्जनाओं और निषेधों से मुक्त कर दिया जाए तो वे अधिक तेजस्वी और प्रगतिशील होकर उभरेंगी।किसी भी किस्म का अनाचार,भ्रष्टाचार,छल,प्रपंच और अपराधिक कार्य वर्जित और दंडनीय होना चाहिये।स्त्री होने के लिए कोई छूट इसमें मिले तो यह न्याय के सिद्धांत के विपरीत होगा।एक सास यदि बहू का गर्भपात(भ्रूणहत्या) या उस पर मिट्टी का तेल डाल कर फूंक देती है तो इस संदर्भ में सामाजिक वर्जना और स्त्री के इस कदाचरण(अशुचिता) के लिए उसे छूट कैसे दी जा सकती है ?

यदि स्वयं के लिए वर्जनाओं का  निर्धारण  स्वयं स्त्री करे तो क्या हो ? 

यह तो उसी तरह की बात हो गई कि बजाए चिकित्सक के रोगी अपना उपचार स्वयं करे।छात्राएं अपनी कापी स्वयं जांचें,स्त्रियों के लिए अलग कानून और दंड संहिता हो जिसे वे स्वयं बनाएं।

विवाह की व्यवस्था में स्त्री  की मनोवैज्ञानिक ,सामाजिक एवं आर्थिक  स्थितियां  कितनी  स्त्री  के पक्ष में  हैं ? 

यह इस बात पर निर्भर करेगा कि विवाह किस श्रेणी का है और पति पत्नी संबंधों का स्तर कैसा है।जहां तक औसत मध्यवर्गीय विवाहों का संदर्भ है सामान्य स्थिति में स्त्री को विवाह उपरांत सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त होती है।रही बात मनोविज्ञान की तो यह व्यक्ति विशेष की मनोदशा पर निर्भर करता है।मोटे तौर पर यह माना जाता है कि एक सफल विवाह स्त्री-पुरुष दोनों को जीवन की सार्थकता प्रदान करता है।कुछ अपवादों को छोड़ कर।साहित्य में चूंकि इस समय स्त्री विमर्श का क्रांतिकारी दौर चल रहा है इसलिए सुखी वैवाहिक जीवन जी रही लेखिकाएं भी विवाह की निरर्थकता को रेखांकित करने के लिए भारी दबाव में हैं।यह उनके साहित्यिक कैरियर का सवाल बन जाता है।इसमें हर्ज भी क्या है?दोनों हाथों में लड्डू हैं।

सहजीवन तो पारंपरिक विवाह में भी होता है।यहां लिविंग इन रिलेशन की बात हो रही है जो एक खूबसूरत परिकल्पना के समान है।रूप-रस-गंध उड़ जाने पर भंवरा किसी और फूल पर जाकर बैठ जाएगा।आखिर वृद्धावस्था में कहां जाएगी स्त्री ?और भी बहुत से प्रश्न हैं जो पूछे तो जाएंगे ही।

साथ होकर भी पुरुष एवं  स्त्री की स्वतंत्र परिधि क्या है ? 
यह अलग अलग लोगों पर अलग अलग तरह से निर्भर करता है।एक मूलभूत स्वायत्तता प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति से प्राप्त रहती है,उसे परिधि में बांधना संभव नहीं है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles