कविता : “प्रकृति की पुकार”

मैं प्रकृति हूँ, चिर चेतना
धरती की स्नेहिल रेखा।
कभी वनों की वासंती हूँ
कभी निर्झरिणी की लेखा।

पर्वत का मैं मौन गर्जन
नभ की मैं नील कहानी।
चाँद की चुपको भी मैंने
सदियों से सुनी पुरानी।

नदी बनी, नदिया की पीड़ा
सागर का आर्तनाद बनी।
वन में हर पत्ते की थरथर
मेरे ही रागों की रजनी।

तुमने मुझको माँ कहा था
फिर क्यों मेरे अंग जले?
क्यों काटे छाया देने वाले
क्यों सूखते मेरे जलकले?

जहाँ कलियाँ खेला करती थीं
अब धुएँ की चादर है।
जहाँ मोर नाचते थे नभ में
अब वहाँ बस खामोशी का डर है।

किसने छीना रंग वनों का?
किसने पिघलाया हिमगिरि को?
किसके लोभ ने लूटा मुझको
और बाँध दिया सागर को?

पक्षी भी रूठे, गीत गए
नदी में जीवन अब नहीं।
अन्न उगे पर स्वाद गया
हवा में अब वह गंध नहीं।

वृक्ष जहाँ थे, स्मृति वहाँ है
पाषाणों का प्राचीन व्यंग।
तुम प्रगति की राह चले थे
छोड़ आए जीवन-गंग।

हे मानव! तू श्रेष्ठ बना
पर मुझको क्या कमतर आँका?
तेरी साँसें मुझ पर आश्रित
फिर क्यों मेरा वक्ष विदीर्ण काटा?

तेरे विज्ञान ने क्या पाया?
प्रदूषण, विस्फोट, तापमान।
तू चाँद पर पहुँचा है अब
पर भूल गया अपना आँगन।

वृक्षों से वायु माँगी तूने
पर दे सका क्या एक बीज?
तूने जो गगन को बाँधा
अब उलझा स्वयं उसी तीज।

कभी किसी बालक ने मुझसे
कहा था -“माँ, मैं तुझे बचाऊँगा।
अब वह बालक कहाँ गया?
क्या वो भी शहर में खो गया?

मेरी मिट्टी अब विषैली,
बीजों में अब गर्भ नहीं।
पर्वत फटे, मरुभूमि फैली
मेरे आँगन में अम्बर नहीं।

मैं पूछ रही हूँ – क्यों ऐसा?
क्या मैंने तुझसे कुछ छीना?
तुझे अन्न, फल, वृष्टि दी
पर तूने काटा मेरा सीना।

फिर भी मैं रोष नहीं लाऊँगी,
यदि तू जागे, हो शुद्ध भाव।
बीजों को फिर बो दे तू
छाया हो फिर हरी चादर-छाव।

बना फिर से वन का मंदिर
जहाँ नदियाँ गाएँ गान।
पशु-पक्षी निर्भय विचरें
मनुज करे प्रकृति का ध्यान।

तू जब फिर पेड़ लगाएगा
तब मैं फिर मुस्कराऊँगी।
तेरी धरणी हरी हो जाएगी
तेरे कुल में गीत फिर गाऊँगी।

चलो, एक दीप जलाएँ फिर
ध्वंस के तम में आशा का।
चलो, एक बीज रोपें फिर
नव वसंत की भाषा का।

माँग रही हूँ कुछ प्रतिज्ञाएँ
नदियाँ फिर से लहराएँ।
हिमगिरि फिर से मुस्काएँ
पवन फिर से मलय बन जाए।

हाथों में हो कुदाल तुम्हारी
मन में हो ध्येय स्थिर।
तब ही यह धरती माता
फिर से करेगी जय घोष नीर।

यदि अब भी तू मौन रहेगा
तो अग्नि बन जाएगी मेरी श्वास।
ना अन्न बचेगा, ना जल, न वायु,
हो जाएगा जीवन निराश।

नहीं चेतोगे यदि अब भी
तो साँझ नहीं, बस रात बचेगी।
मिट जाएँगे चित्र तुम्हारे
न कोई भाषा, न बात बचेगी।

फोटो गूगल से साभार

तेजस पूनियां शोधार्थी लेखक, फ़िल्म समीक्षक,

ईमेल – tejaspoonia@gmail.com

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