नई माँ

मैं दिल्ली जाने के लिये बिल्हौर स्टेशन पर खड़ी थी। पलटकर स्टेशन के प्रवेश द्वार को देखा तो बीते दिनों की कौंधी यादों के साथ ही रोना आ गया। सबको बचाते हुए, आँखों से झरते आँसू झट पोछ लिये! आज समझ आ रहा था कि मायके का छूटना क्या होता है! शायद ऐसा ही महसूस करती होगी वो लड़की, जो विवाह के समय अपनी माँ का आँचल छोड़ती होगी। मैंने अपनी शादी में माँ से बिछुड़ने के दुःख और कसक को जाना ही नहीं था।
परन्तु आज, आज मायके की यादों को आँखों मे समेट रही थी कि…
‘ट्रेन आ गई… ट्रेन आ गई…’ का शोरगुल मच गया! एक-एक समान सम्हालते-सहेजते हुये मैं और अनुभव बच्चों के हाथ थाम कर डिब्बे की तरफ बढ़े। पहले बच्चों को चढ़ाया,फिर मैं भी ट्रेन में चढ़ गयी। अनुभव ने सीट के नीचे सारा सामान व्यवस्थित किया। साढ़े 8 बजे आने वाली जयपुर एक्सप्रेस रात के साढ़े 9 बजे स्टेशन पहुँची थी। हम खा-पीकर ही घर से निकले थे, सो सब अपनी-अपनी सीट पर लेट गये, मैं भी।ट्रेन आगे की ओर चल पड़ी, और मैं आँखे मूँदकर पूरे 25 साल पीछे…।
स्मृतियाँ सदैव आँसुओं की पोटली होती हैं। अच्छी हों, चाहे ख़राब; यादें आँखें नम कर ही देती हैं। आँखें मूँदते ही मुझे अपने घर का बड़ा-सा आँगन दिखा। मेरा घर! विकास के इस दौर में भी जिसने अपना अस्तित्व बचाये रखा था । बड़े से आँगन के बीच में बनी वेदी और तीन तरफ बरामदा और एक तरफ सीढियां, जो छत पर जाती थीं। सीढ़ियों के बराबर में सामने चाँदनी का पेड़। बरामदों के साथ तीनों तरफ कमरे थे। एक तरफ बैठक, एक तरफ रसोई, एक तरफ सोने का कमरा; उसे बड़ा कमरा कहते थे।
रसोई के सामने बरामदे में अपनी खाट पर लेटी 65 वर्षीय मेरी दादी ने माँ को आवाज़ लगायी।
“बहूऊऊ… जरा इधर तो आ।”
“हाँ अम्मा जी, जल्दी बताइये क्या काम है, तनु के कपड़े प्रेस करने हैं।”
“आ इधर, दम भर मेरे पास बैठ तो सही।”
“लो बैठ गयी, अब बताओ क्या है?” “रसोई बना ली?”
“हाँ अम्मा, तुलसीदल (भोजन) ले आऊँ तुम्हारे लिये?”
“नहीं रे, अभी तो कलेवा का स्वाद भी मेरे मुँह से नहीं गया है।
“हम्म… तो?”
“जरा-सा आटे का हलवा खाने का मन था, दो कौर बना देती।”
“ठीक है अम्मा, खाना खाओगी तभी बना दूँगी।”
“मुन्ना ने खा लिया?”
“हाँ सबने खा लिया, बस हम-तुम दो जने ही बचे हैं; हमारा बुधवार का उपवास है।”
“तो फिर तू ले ही आ मेरे लिये।”
“ठीक है अम्मा।”
थोड़ी देर बाद माँ ने, दादी को कांसे की थाली में खाना लाकर दिया। पर दादी तो आग बबूला हो गयीं और माँ को खरी-खोटी सुनाने लगीं।
“इत्ता ज़रा-सा कोई बनाता है? बनाया क्या है,बस नाम कर दिया कसम खाने के लिये। घर में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है, आटा बोरी भर रखा है, घी का कनस्तर पिछले महीने ही आया है। इफरात से बनाती क्यों नहीं…? अकाजली कहीं की।” इस पर माँ मुस्कुराते हुये बोली, “कुल इतना ही बनाये हैं अम्मा, खा लीजिये। जो तनु आ गई तो इतना भी नही मिलेगा।”
“मुझ बुढ़िया को हर चीज के लिये तरसाती रहती हो। आने दे आज मुन्ना को एक-एक बात कहूँगी तेरी।”
“ठीक है अम्मा, कह लेना, पर अभी तो खा लो, नहीं फिर हलवा ठंडा हो जायेगा।”
“कान में डालने जोग तो हलवा है! इतना तो दाँतों में ही चिपक जायेगा, नटई तक पहुँचेगा भी नही।”
माँ मुस्कुराते हुए बोली- “और कुछ चाहिये हो तो आवाज़ लगाना अम्मा, हम कपड़ा प्रेस करने जा रहे हैं।”
“हम्म… मेरी टेरीवायल वाली दोनों साड़ी भी प्रेस कर देना, अब से रोज वही पहनेंगे। बक्सा में धरे-धरे कौन से अंडा दे रही हैं।”
“ठीक है अम्मा, अब जाऊँ।”
“हओ… मैंने कौन-सा पकड़ रख्खा है।”
दादी की बड़बड़ाहट अब भी जारी थी, हलवे की कम मात्रा को लेकर।

तभी मोबाइल की घण्टी बजी, नई माँ… नहीं-नहीं माँ की कॉल थी। पूछ रही थीं- “सामान चेन से बंधा है न?
“ताला जाँच लिया था, ठीक से लगा है या नही?”
“सुबह का अलार्म लगा लिया न?”
मैंने मुस्कुराते हुए उनकी हर फिक्र के जवाब ‘हाँ माँ’ कहके दिये और उनसे कहा- “माँ, आप भी अपना ख्याल रखियेगा, हाँ। फिर फोन काट दिया। एक नज़र सामने सोये हुये बच्चों और पतिदेव पर डालकर मैं फिर अपनी अतीत-यात्रा पर चल पड़ी।
गुरुवार की सुबह 7 बजे पापा के जगाने पर जब मैं स्कूल जाने के लिये उठी तो देखा,सुबह साढ़े 5 बजे तक नहा लेने वाली माँ बाथरूम में हैं। वो नहा रही थीं। मैंने कहा-“माँ, मुझे ब्रश करना है।”मैं नहा ही चुकी हूँ। जा, जाकर अलगनी पर से मेरी एक साड़ी उठा ला।”
मैं जब साड़ी लेने कमरे में गयी तो मुझे प्रेस किये हुये कपड़े दिखे, उन्ही में से दादी की धानी रंग की साड़ी उठाकर माँ को दे आई। तब वो कुछ बोल तो रही थीं, पर मैंने सुना ही नहीं। वापिस कमरे में आकर टाइम टेबल के हिसाब से अपना बस्ता ठीक करने लगी।
तभी माँ ने आकर कहा- “जाओ ब्रश कर लो, नहा लो।”
“माँ आज टिफिन के लिये आलू- पराठा बना रही हो न? कल कहा था तुमने!” उनकी बात अनसुनी करते हुए मैंने कहा।
“अच्छा! न बनाऊँ तो?”
“माँ…. बनाओ….,नहीं तो मैं स्कूल ही नही’ जाऊँगी।” कहते हुए मैं ठुनकने लगी।
“हाँ बाबा बना रही हूँ, सब तैयार है। बस, परांठे सेकने बाकी हैं।”
मैं जब नहाकर लौटी तो स्कूल ड्रेस प्रेस की हुई पलँग पर रखी थी। तैयार होकर टिफिन लेने रसोई में पहुँची तो देखा- माँ, दादी को नाश्ते में आलू की रोटी (परांठे का स्वादिष्ट विकल्प) परोस रही थीं। यह हमेशा ही दादी का मनपसंद नाश्ता था। मैंने सुना, उन्होंने खुश होकर माँ से कहा, “दुलहिन,ये साड़ी तुम पर खिल रही है, इसे तुम ही पहनो अब।”
“अरे नही अम्मा, आज कुत्ता ने द्वार पर गन्दगी कर दी थी न, तो इसीलिये बाल धोकर फिर से नहाना पड़ गया। तनु से मंगाये तो वो यही पकड़ा गयी तो पहननी पड़ी।”

मैं ‘माँ-माँ’ कहती हुई उनसे ऐसी लिपट गई कि ‘त नू उ ऊ ऊ ऊ का मानो आर्तनाद उनके कण्ठ से फूट पड़ा! अब न वह मुझे छोड़ रही थी, न मैं उन्हें छोड़ पा रही थी! ‘माँ’ क्या होती है? ‘मायका’ क्या होता है? यह सब अब मेरे भीतर उतरता जा रहा था! अब न उन्हें छोड़ने का मन हो रहा था और न ही मायके के इस घर से मेरे पाँव ही जाने के लिये उठ रहे थे! आज अब मुझे पता चल रहा था कि कितने दिनों तक माँ के इस प्रेम रुपी अमृत से मैं अपने आप को वंचित किये रही हूँ…


“हुँह, इतनी रात गए कौन चाय पियेगा।” खुद से ही बोली मैं, मोबाइल पर्स में रखा और करवट लेकर लेट गयी।
माँ जब ये दुनिया और मुझे छोड़ कर गयी तो मैं सिर्फ छह साल की थी। स्कूल में पाँचवाँ पीरियड चल रहा था कि मास्टर जी आये और कहा- “तुम्हारे ताऊजी तुम्हें लेने आये हैं।”
मैं खुश हो गयी! सोचा शायद कहीं जाने का या पूजा-पाठ का प्रोग्राम होगा। मैं खुशी-खुशी ताऊजी के साथ उनकी साइकिल पर बैठकर घर आ गयी। दरवाजे के बाहर भीड़ देखकर मन में अनजाना-सा डर लगा। जब अन्दर आँगन में आयी तो देखा कि माँ को ज़मीन पर लिटाया गया है। उन्होंने दादी की वही धानी रंग की साड़ी पहन रखी थी। उसे हटाकर उन्हें लाल साड़ी पहनाई गयी। बुआ, ताई, चाची उन्हें सजा रहीं थीं और दहाडें मार-मारकर रो भी रहीं थीं। मैने जब पूछा- “क्या हुआ मम्मा को?” तो उनका रुदन और प्रचण्ड हो गया। मुझे शायद पता था कि माँ अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर पता नहीं क्यों? उस समय मुझे इतना बुरा नहीं लगा!
माँ के जाने के 15 दिन बाद शुरू हुआ जीवन जीने का संघर्ष। पानी भरना, खाना बनाना, कपड़े धोना, सूखने पर समय से उठाना, तह बनाकर रखना, झाड़ू-बुहारी और भी न जाने कितने काम, जो अब तक अदृश्य थे कि अचानक विकराल-रूप में सामने आ खड़े हुए। कामवाली लगाने पर कुछ राहत हुई, पर गाड़ी पटरी पर नहीं आयी।
अभी छह महीने भी नहीं हुए और कई सारे रिश्तेदार; पापा और दादी को दूसरी शादी के लिये कहने लगे। उनका कहना ग़लत भी नही था। पैंसठ साल की दादी आखि़र कितना करती? घर का काम और मुझे भी सम्हालना बहुत मुश्किल था उनके लिये। पापा प्राइवेट नौकरी करते थे। वह भी घर पर अधिक समय नहीं दे सकते थे। माँ के जाने से घर रीढ़विहीन हो गया था। जीवन का नाम नही था, बस हर समय मनहूसियत-सी ही महसूस होती।
एक दिन जब स्कूल से लौटी तो देखा घर पर गुड्डी बुआ आयी हैं और बैठक में कुछ मेहमान भी बैठे हैं। मुझे अच्छे से याद है कि जाते समय उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरकर प्यार किया था और सौ रुपये भी दिये थे।
फिर खाना खाते समय बुआ ने बताया कि अब तेरी ‘नई माँ’ आने वाली है।
मेरा हाथ रुक गया! माँ के न रहने के बाद से ही सौतेली माँ के बारे में जाने क्या-क्या सुनती रहती थी।
आखिर सबके कहने पर पापा ने दूसरी शादी कर ही ली। मुझे यही बताया गया कि ‘नई माँ’ मुझे सम्हालने के लिये आयी है। वो मेरा ख्याल भी बहुत रखती थीं, पर मैने कभी उन्हें ‘माँ’ नहीं माना। वो मुझे बहुत प्यार करती थीं लेकिन; वो जो भी करतीं, मुझे वह सब सिर्फ़ एक ढोंग लगता, बिल्कुल दिखावा! उन्हें बहुत शौक था कि मैं उन्हें ‘माँ’ कहूँ, पर मैं हमेशा उनको ‘नई माँ’ कहकर ही बुलाती। उन्होंने कई जतन किये कि मैं उन्हें ‘माँ’ कहूँ। पापा से और दादी से पूछ-पूछकर मेरी पसन्दीदा रसोई बनाई। कपड़े भी हमेशा वही खरीदतीं, जो मैं कह दूँ। मेरा टिफिन, स्कूल-ड्रेस वो माँ से भी अधिक व्यवस्थित रखतीं थीं! मेरी कॉपी और किताब पर वह खू़ब सुन्दर-सुन्दर कवर चढ़ातीं। जब कभी स्कूल से उदास घर लौटती तो सहेलियों से कारण पता लगातीं और मेरी ग़लती होने पर समझातीं। मेरी ग़लती न होती तो जाकर मास्टर से लड़ पड़तीं। फिर भी मेरा मन नहीं पसीजा तो नहीं ही पसीजा। जाने क्या मेरे मन में नई माँ को लेकर मैल था कि चित्त से उतरा ही नहीं!
दो साल बीतते न बीतते उनकी काया में अजब बदलाव दिखा मुझे। कभी-कभी वह सुस्त भी हो जाती, पर मेरा ध्यान रखना, मेरा टिफिन, मेरी स्कूल-ड्रेस वगैरह में उनसे कभी कोई कोताही नहीं पा सकी मैं।
एक रात ‘नई माँ’ को पेट में बहुत दर्द हुआ। वो हॉस्पिटल ले जायी गयी तो 4-5 दिन बाद लौटीं। मुझसे बोली-तनु बेटी! ले, मैं तेरे लिये छोटा भाई लेकर आईं हूँ!”
और फिर मेरी गोदी में उस देते हुए कहने लगीं- “मेरी तनु अकेली बोर हो जाती है न! तो आज मैं उसके लिये डॉक्टर से एक बाबू माँग लाई हूँ।”
सच पूछो तो मेरे अन्दर वात्सल्य की एक हिलोर उठी भी कि झट से मैंने उस नन्हें गोलगोथने का मुँह बरबस ही चूम लिया।
फिर जाने क्या हुआ, भीतर के पूर्वाग्रहों ने मेरे उस उमडे़ हुए प्रेम को दबा दिया!
परन्तु दादी बहुत खुश थीं। दस – पंद्रह दिन के लिये गुड्डी बुआ भी आ गयीं। अब ‘नई माँ’ ने नये सिरे से गृहस्थी सम्हाल ली थी। लेकिन अब उनके लिये बहुत सारे नये काम भी बढ़ गये थे। उन्हें काफी श्रम करना पड़ता था।
अब ‘नई माँ’ सचमुच बहुत ही व्यस्त रहती थीं। परन्तु पूरे मन से मेरा ख्याल रखने में उन्होंने हार नहीं मानी थी। मुझे रिझाने-दिखाने या जो भी कह लिया जाय, के लिये नहीं, अन्तर्मन से वह अब भी मेरे सारे काम पहले जितने ही मनोयोग से करती थीं। लेकिन हाँ, पहले की तरह पूरे दिन मेरे आगे-पीछे नहीं डोलतीं थीं।
भाई अब छह साल का हो गया। मैं उससे पूरे आठ साल बड़ी थी। फिर भी मैं छोटे भाई को हमेशा डाँट दिया करती! परन्तु न कभी भाई ने बुरा माना न ‘नई माँ’ ने।
एक बार उसको पढ़ाने बैठी तो ‘च’ से चम्मच पढ़ाते हुए खीझकर उसे इतनी तेज मारा कि उसके कान से खून बहने लगा। पिताजी ने मुझे इस पर बुरी तरह डाँटा, पर ‘नई माँ’ ने मेरा बचाव करते हुये कहा कि वो मारेगी नही’ तो ये पढ़ेगा कैसे! मगर उस दिन पापा की हिदायत के बाद अबीर का गृहकार्य ‘नई माँ’ ही करवाने लगीं।
अब मेरा ज्यादातर समय दादी के पास ही गुजरता, लेकिन शायद भगवान को यह पसन्द नही आ रहा था। 15 दिन के डेंगू-बुखार से हारकर एक दिन वो भी हम सब को छोड़कर ‘माँ’ के पास चली गयीं।
दादी के गुज़र जाने के बाद अब मैं अकेला महसूस करने लगी, अपने अकेलेपन से परेशान होने लगी। यही नहीं, अब मुझे माँ की कमी जितनी शिद्दत से महसूस होती, मेरा व्यवहार ‘नई माँ’ के प्रति उतना ही रूखा होता जा रहा था। ऐसा नहीं कि बाबू होने के बाद से नई माँ मेरा ख्याल न रखती हों या फिर मेरी उपेक्षा करतीं हों; यहाँ तक मुझे लेकर कोई टाल-मटोल भी वह नहीं करती थीं। फिर भी,न जाने क्यों मैंने, हम दोनों के बीच एक ऐसी ढलान बना रखी थी, जिसके ऊपरी सिरे पर नई माँ थी और निचले सिरे पर मैं। इससे उनका प्रेम मेरे पास तो आ जाता था, पर मेरी तरफ से उन तक प्रेम पहुँचने की कोई गुंजाइश नहीं थी। मेरा ऐसा व्यवहार देखकर पिताजी ने मुझे 9वीं से होस्टल में डाल दिया। मेरा कभी घर जाने का मन ही नही होता था। सब लड़कियाँ जब घर जाने की योजना बना रही होती, मैं अखबार में हॉबी वाले क्लासेज़ खोज रही होती। कभी घर जाती भी तो बस 2-4 दिनों के लिये ही। और जल्द ही वापस होस्टल आ जाती।
अब पापा से भी बात औपचारिक ही होती, प्रायः फ़ीस को लेकर, बस। बी.टेक. द्वितीय वर्ष में अनुभव से दोस्ती हुई तो दो साल में गहरे प्रेम में बदल गयी और फिर जल्दी ही शादी में। अनुभव के माँ-बाप नहीं थे, शादी साधारण मन्दिर में और कोर्ट में हो गयी! मैने उस समय भी किसी से पूछना जरूरी नहीं समझा, सिर्फ पापा को बताया था। फिर भी शादी में पापा और अबीर आये और शगुन के तौर पर मेरी माँ के जेवर दे सौंप गये।

“तो क्या हुआ, लाती भी तो तुम्हीं हो, एक और ले आना। अब मायके-ससुरे से तो मिलने से रहीं।”
अचानक झटके से ट्रेन रुकी! शायद कोई बड़ा स्टेशन था।तभी तो रात को 11 बजे भी खूब चहल-पहल थी। मोबाइल निकाल कर मैंने कुछ नोटिफिकेशन चेक किये, गैलरी में फोटो देखने लगी, जो एलबम से खींची थी। एक फोटो को देखा- उसमें मैंने अबीर को बड़े प्यार से गोद में ले रखा था।
अबीर मुझसे 8 साल छोटा है, पर मुझे अच्छे से याद है कि कभी भी मैंने बड़प्पन नही दिखाया। हर चीज़ उससे पहले ही मुझे चाहिये होती थी,चाहे वो खाने की हो या खेलने की। वैसे वह बहुत सीधा था, पर कभी-कभी जि़द करता था। तब नई माँ उसे बहला-फुसलाकर या डाँट-मारकर चुप करा देतीं।
‘चॉय चॉय चॉय…’ की आवाज़ सुनायी दी।

अब मुझे माँ की कमी जितनी शिद्दत से महसूस होती, मेरा व्यवहार ‘नई माँ’ के प्रति उतना ही रूखा होता जा रहा था। ऐसा नहीं कि बाबू होने के बाद से नई माँ मेरा ख्याल न रखती हों या फिर मेरी उपेक्षा करतीं हों; यहाँ तक मुझे लेकर कोई टाल-मटोल भी वह नहीं करती थीं। फिर भी,न जाने क्यों मैंने, हम दोनों के बीच एक ऐसी ढलान बना रखी थी, जिसके ऊपरी सिरे पर नई माँ थी और निचले सिरे पर मैं।


शादी के बाद मैंने घर से लगभग सब सम्बन्ध खत्म ही कर लिये। हाँ, अधिक दूरियाँ नहीं आयीं बीच में। पापा और अबीर साल-दो साल में मिलने आते ही रहे।
अभी पन्द्रह दिन पहले अबीर ने फोन पर बताया- “पापा नहीं रहे दीदी!”
मैं अवसन्न! मुझे कुछ समझ नही आ रहा था! मैंने रोते-रोते अनुभव के ऑफिस फोन लगाया- “हेलो.., अनुभव! जल्दी घर आ जाओ, अभी-अभी अबीर का फोन आया है… पापा… मेरे पापा अब इस दुनिया में….।” आगे के शब्द मेरी हिचकियों में गुम हो गये थे।
अनुभव ने कहा- “तुम बच्चों और सामान के साथ तैयार रहो। मैं कैब लेकर आ रहा हूँ।अभी तो 6 ही बजे हैं। 9 बजे ट्रेन है, समय से स्टेशन की दूरी तय हो जायेगी! घबराओ नहीं, ट्रेन मिल जायेगी।”
अनुभव ने टीटी को अतिरिक्त पैसे देकर दो सीट कन्फर्म करवाई और मुझसे बोले -“एक में दोनों बच्चे और एक में तुम बैठो, सफर आराम से कट जायेगा, सुबह तो पहुँच ही जाना है। भले ही सब होंगे, पर अब तो माँ को तुम्हें ही देखना और सम्हालना है। 13वीं में समय से और पक्का मैं पहुँचूँगा!”
अबीर का दोस्त मुझे स्टेशन लेने आया। घर पहुँची तो देखते ही ‘नई माँ’ मुझसे लिपट गयी! मैं भी उनको अँकवार में भींचकर जोर-जोर से रोने लगी। अब न आँसू रुक रहे थे, न मुझसे ‘नई माँ’ को छोड़ा ही जा रहा था। बुआ ही बहुत मुश्किलों से ‘नई माँ’ को मुझसे अलग कर पायीं। आज ‘नई माँ’ को निरुपाय देख-देख मेरा कलेजा मुँह को आ रहा था। अगले दिन पिता की अंत्येष्टि हो गयी, होनी ही थी… पर सूनी-माँग, सूनी कलाई और बिछुए बिना ‘नई माँ’ के पैरों को देखना मुझे रह-रहकर अपराध-बोध से भरता जा रहा था कि ‘नई माँ’ जैसे सम्बोधन के बावजूद जिन्होंने बेटी की तरह से हमेशा मेरा ध्यान रखा, दादी के बाद अब मेरे पापा के बिना वह यहाँ कैसे रह पायेंगी! मेरे मन से यह चिन्ता उतर ही नहीं रही थी!
दो-चार दिन तो बहुत रिश्तेदार थे, उसके बाद मैने देखा कि माँ अब भी मेरा ध्यान वैसे ही रख रहीं थी, जैसा कि 25 साल पहले रखा करती थीं। परन्तु अब भी कहीं मेरे मन में यह क्यों पैठा हुआ था कि दिखावा होगा, कुछ रिश्तेदार बचे जो हैं न?
13वीं तक सभी जा चुके थे। 13वीं के दो दिन बाद मेरे लौटने का रिजर्वेशन था। मैने देखा कि ‘नई माँ’ पन्नी की कई पोटलियाँ और प्लास्टिक के डिब्बे एक बैग में रख रही हैं और बीच-बीच में साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछती जा रही हैं। सहसा मेरी 8 वर्षीया बेटी ने उत्सुकतावश पूछ लिया-
“नानी ये क्या है?”
“अरे जब बिटिया विदा होती है तो ये सब दिया जाता है, तू ना समझेगी अभी, छोटी है।”
अब माँ विधवा हैं तो कुंकुम-महावर नहीं छू सकतीं, इसलिए विदाई से पहले पड़ोस की भाभी को बुलाकर टीका, महावर और गाँठ बाँधने की रस्म करवाई।
मेरे और इनके पैर छुए, बच्चों पर हजारों चुम्बन और आशीष लुटाये। चलने को हुई ही कि वह मुझसे भेंटने लगीं तो उनका चेहरा देख करके मेरे अन्तस्तल से प्रेम की ऐसी हिलोर आयी कि पूर्वाग्रहों के सारे बाँध टूट गये और मैं ‘माँ-माँ’ कहती हुई उनसे ऐसी लिपट गई कि ‘त नू उ ऊ ऊ ऊ का मानो आर्तनाद उनके कण्ठ से फूट पड़ा! अब न वह मुझे छोड़ रही थी, न मैं उन्हें छोड़ पा रही थी! ‘माँ’ क्या होती है? ‘मायका’ क्या होता है? यह सब अब मेरे भीतर उतरता जा रहा था! अब न उन्हें छोड़ने का मन हो रहा था और न ही मायके के इस घर से मेरे पाँव ही जाने के लिये उठ रहे थे! आज अब मुझे पता चल रहा था कि कितने दिनों तक माँ के इस प्रेम रुपी अमृत से मैं अपने आप को वंचित किये रही हूँ… कि अबीर हमारे बीच आकर बोला -“माँ! दीदी!! गाड़ी छूट जाएगी… स्तब्ध बच्चों के हाथ पकड़ अबीर का दोस्त कार की ओर बढा़ तो हम भी बेमन से अलग हुए। तब माँ से और अपने आप से भी जल्दी ही आने के वायदे के साथ, भरे-हृदय और भारी पैर से मैं भी गाड़ी की तरफ चल पड़ी। माँ मुझे गाड़ी में बैठते देख उदास मुख खड़ी हो गयीं कि कुछ बोलना चाहती हों। मैंने अपना माथा उनके एक काँधे पर टिका दिया, जिसे वह अपने हाथों सहलाने लगीं। मैं बमुश्किल बोल पाईं-
“माँ! मैं लौट-लौटकर और भरसक जल्दी-जल्दी अपनी इस देहरी पर आऊँगी। अब आप, अबीर और यह देहरी ही तो है माँ, जो जीते जी नहीं छूटेगी…।

अन्ततः अबीर और उसका दोस्त कार में बिठाकर हमें स्टेशन की ओर चल पडे़। परन्तु पीछे दूर से कहीं अवचेतन में गूँज रहा था; “बाबुल मोरा नैहर छूटा जाय…।”

*चित्र गूगल से साभार


पूजा अग्निहोत्री
(कवयित्री, कहानीकार)

ईमेल – agnihotrypooja71@gmail.com

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