नीतीश के राज में महिलाओं का सशक्तिकरण या आंकड़ों का भ्रम?

पलायन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और अपराध के आंकड़ों पर नजर

नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता संभालने के साथ ही महिलाओं को केंद्र में रखकर राजनीति की नई पटकथा लिखी। पंचायत चुनावों में 50% आरक्षण, साइकिल योजना, पोशाक योजना और महिला स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत करके एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की। दसवीं, बारहवीं और ग्रेजुएशन पास करने पर प्रोत्साहन राशि का भी ऐलान किया। शराबबंदी का फैसला भी उन्होंने महिलाओं की मांग पर किया, जबकि इससे राज्य को राजस्व के रूप में भारी आर्थिक नुकसान होता रहा है। इसी साल जुलाई में मूल निवासी महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 35% आरक्षण को भी मंजूर किया गया है। जीविका दीदी योजना, दहेज़ के विरोध में विश्व की सबसे लम्बी मानव श्रृंखला और अब तक 1.21 करोड़ महिलाओं के खाते में रोजगार शुरू करने के लिए 10 हजार की रकम ट्रांसफर की जा चुकी है। लेकिन 2025 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लॉन्च हुई योजनाएं महिला सशक्तिकरण से ज्यादा चुनावी रणनीति होने की इसकी पुष्टि करते हैं।


नीतीश कुमार की योजनाओं की वाहवाही से अलग जमीनी पड़ताल कुछ और भी बयां करती है। मसलन, 2021 के पंचायत चुनाव के आकड़ों के आधार पर मौजूदा समय में बिहार में लगभग 1.10 लाख महिलाएं निर्वाचित हुईं है जो कुल प्रतिनिधियों का 55.35% है यानी 50 प्रतिशत के आरक्षण सीमा से भी ज्यादा। लेकिन सरपंच पति सिंड्रोम’ इसका दूसरा पक्ष और अलग चुनौती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 25% महिला सरपंच स्वतंत्र निर्णय लेती हैं। इससे स्पष्ट है कि निर्णय-क्षमता अभी भी पुरुष-प्रधान ढांचे में सीमित है।

बिहार में 2025, SIR के तहत जारी अंतिम मतदाता सूची में कुल 7.43 करोड़ मतदाता हैं जिनमें 48% यानी कुल 3.72 करोड़ महिलाएं हैं, यह संख्या पुरुषों (3.92 करोड़) से थोड़ा कम हैं, लेकिन पिछले वर्षों की तुलना में 15 लाख की वृद्धि हुई है। बिहार की महिलायें पुरुषों के मुकाबले ज्यादा वोट करती हैं, 2010 के चुनाव में 51.12% पुरुषों ने वोट किया था तो महिलाओं का वोट प्रतिशत 54.49 % था। 2015 के चुनाव में 53.32% पुरुष और 60.48% महिलाओं ने वोट किया था, 2020 विधानसभा चुनाव में 54.45 % पुरुषों के मुकाबले 59.69 % महिलाओं ने वोट किया, यानी पिछले 3 चुनावों में हर बार महिलाओं ने ज्यादा वोट किया है। बल्कि उत्तरी बिहार के 167 में से अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से अधिक वोट डाले। यह ट्रेंड 2015 से जारी है, जहां महिलाओं ने 202 निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक भागीदारी दिखाई।


कुल मिलाकर आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि बतौर मतदाता महिलायें क्यों महत्वपूर्ण हैं। लेकिन, इन आंकड़ों के पीछे ये सवाल भी हैं कि क्या सिर्फ भागीदारी का बढ़ना सशक्तिकरण है? बिहार की महिलाओं की राजनीति में भागीदारी कितनी है, प्रतिनिधित्व और नेतृत्व के पदों पर कितनी है? कैबिनेट में कितनी है और प्रशासन में कितनी है ?
हकीकत ये है कि मौजूदा 243 सदस्यीय विधानसभा में साल 2020 के चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक 24 महिलाएं हैं यानी मात्र 10% जबकि राष्ट्रीय औसत 14% है। और हर चुनाव के साथ हिस्सेदारी घटते क्रम में है मसलन 2005 में 37 महिलाएं थीं जो 15% था, 2010 में 27 यानी 11% फीसदी, और 2020 में 24 (10%) रह गई। ADR के विश्लेषण के अनुसार, महिलाओं की जीत का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है, जबकि वे मतदान करने में आगे हैं।
बिहार कैबिनेट में महिलाओं की संख्या सीमित है। वर्तमान नीतीश कुमार सरकार (NDA) में कुल 31 मंत्रियों में 3 महिलाएं हैं ( केंद्रीय कैबिनेट राष्ट्रीय औसत 11% से कम लगभग 10%)। ये हैं, रेनू देवी,लेशी सिंह, शीला मंडल। 2022 के कैबिनेट विस्तार के बाद भी मंत्रिपद पर 3 महिलाओं को ही रखा गया।और वित्त या गृह जैसे प्रमुख विभाग उन्हें नहीं दिए जाते।

हालाँकि 2020 में JDUने कुल 115 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, इनमें से 22 महिलाओं को टिकट दिया गया था। यानि महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत लगभग 19.13% था, जो JDU का उच्चतम स्कोर कहा जा सकता है और नीतीश कुमार की महिलाओं के प्रति प्रतिबद्ध नीति को दर्शाता है, लेकिन राज्य स्तर पर कुल उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या केवल 3% थी। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के सन्दर्भ में इसका जिक्र उल्लेखनीय है और समग्रता में पिछले 20 साल में बिहार में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की असली तस्वीर रखता है।


इसी तरह बिहार कैडर में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। राज्यवार भर्ती में बिहार से 16% महिला IAS अधिकारी आती हैं, राष्ट्रीय औसत 30% है। कुल बिहार कैडर लगभग 350 IAS में महिलाओं की संख्या 50-60 यानि 15-17% अनुमानित है। वर्तमान जिलाधिकारियों (DM) में केवल 8% महिलाएं हैं (38 जिलों में 3-4 महिलाएं)। अंडमान-निकोबार, जम्मू-कश्मीर, दादरा नगर हवेली को छोड़ दें तो विधायिका से लेकर उच्च प्रबंधकीय पदों तक बिहार की महिलाएं ही सबसे कम संख्या में केवल 7.8 % तक ही पहुंच रहीं है, जबकि राष्ट्रीय औसत 22.2% का है। हाँ पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 29 % तक है, जो राष्ट्रीय औसत से काफी ऊपर है।

2006 में जीविका योजना, ग्रामीण महिलाओं के SHG के माध्यम से आर्थिक सशक्तिकरण के लिए शुरू हुई। इसके तहत 11 लाख SHG बने और 1.40 करोड़ महिलाएं जुड़ीं; 2025 तक के आंकड़े के मुताबिक इसके मार्फ़त अब तक ₹12,200 करोड़ बैंक लोन दिया गया लेकिन रिकवरी का आंकड़ा ₹5,000 ही करोड़ है और 10 लाख SHG का लक्ष्य ही हासिल हुआ है। इण्डिया टुडे की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बिहार की 1.09 करोड़ महिलाओं ने माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से औसतन 30 हजार रुपए का कर्ज ले रखा है। और पिछले डेढ़ साल में बीस से अधिक लोगों ने इस कर्ज के जाल में फंस कर खुदकुशी कर ली है। इस तस्वीर को CPIML से संबद्ध ऐपवा की महिला साथियों के द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंटरी “क़र्ज़ फांस” भी सामने लाती है,मीडिया में प्रचलित नीतीश कुमार की महिला पक्षधर छवि से अलग जो बताती है कि गरीबी, माइक्रोफाइनेंस कंपनियों की लूट और कर्ज के जाल में फंसी बिहार की गरीब महिलाओं सरकार की बेरुख़ी के कारण कर्ज़ के दलदल में हैं, आत्महत्याएं कर रही हैं, उनका परिवार रातों रात अपना गांव -घर छोड़कर निकल जा रहा है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2021) बताता है कि बिहार में केवल 25% महिलाएं ही किसी प्रकार की निजी आय अर्जित करती हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत करीब 43% है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं के लिए बेरोजगारी के मामले में देश में पटना शीर्ष पर है।

बिहार आर्थिक सर्वे 2024–25 के अनुसार बिहार का क्रेडिट-डिपॉजिट (सीडी) अनुपात सिर्फ 47.6% है, जो पूरे देश में सबसे कम है। इसका मतलब यह है कि बिहार के बैंकों में जितना पैसा जमा होता है, उसका बहुत छोटा हिस्सा ही बिहार में ऋण के रूप में वापस आता है। बाकी पैसा दूसरे राज्यों में निवेश या उधार के रूप में चला जाता है और वहीं की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करता है। बिहार में अंतरराज्यीय पलायन पूरे भारत की तुलना में पाँच गुना ज्यादा है, यानी यहाँ बुनियादी रोजगार के मौके भी नहीं हैं। बिहार में महिलाओं के लिए श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) राष्ट्रीय औसत से काफी कम है, जिसका मतलब है कि बहुत कम महिलाएँ श्रम बल का हिस्सा हैं या नौकरी की तलाश कर रही हैं। 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार में पुरुष एलएफपीआर 70.6% है जबकि महिला एलएफपीआर केवल 15.6 % और कुल एलएफपीआर 43.4%है, जो राष्ट्रीय औसत 56.0% से बहुत कम है। पुरुष और महिला भागीदारी दर के बीच का अंतर बहुत अधिक है, कामकाजी आबादी में महिलाओं का अनुपात बिहार में सबसे कम है।

बिहार में 15 से 29 आयु वर्ग के करीब एक तिहाई लोग शिक्षा, रोजगार या ट्रेनिंग से नहीं जुड़े हुए हैं। इस मामले में महिलाओं की स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। इस आयु वर्ग की आधी से ज्यादा महिलाएं इनसे महरूम हैं। बिहार की वार्षिक बेरोजगारी दर 3.9% राष्ट्रीय औसत 3.2 %से थोड़ी अधिक है। नीतीश के शासनकाल में GSDP में औसतन 10% वृद्धि दर रही, लेकिन बेरोजगारी दर 12% (CMIE, 2024) तक जा पहुँची। दूसरी ओर एक हकीकत ये भी है कि बिहार स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड के तहत ₹4 लाख तक का लोन लेने वाले लगभग 55 हजार छात्र गायब हो गए हैं, जिस पर सरकार मुकदमा करने की योजना बना रही है। जबकि कितनी लड़कियां स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड के तहत लोन लेकर पढ़ाई करती हैं इसका कोई आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। इण्डिया टुडे की ही रिपोर्ट के मुताबिक बिहार की लगभग 83 % महिलाएँ स्वरोजगार में हैं नियमित वेतनभोगी लगभग 4.8 % ही हैं। स्वरोजगार का सच आप सब जानते हैं, एशियन रिव्यु ऑफ़ सोशल साइंस के एक सर्वें में बिहार में ग्रामीण महिला-पुरुष आय असमानता 58 % है बिहार 27वें स्थान पर है हाँ शहरी महिला-पुरुष आय असमानता 11.53 प्रतिशत है और बिहार 10वें स्थान पर है। नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2012-13 और 2021-22 के बीच बिहार का वास्तविक जीएसडीपी औसतन 5.0 प्रतिशत की दर से बढ़ा, लेकिन राष्ट्रीय औसत वृद्धि दर 5.6 प्रतिशत से कम ही रहा। यही नहीं पिछले तीन दशकों के दौरान, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में बिहार का हिस्सा 1990-91 में 3.6 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में 2.8 प्रतिशत हो गया। 2021-22 में इसकी प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय का केवल 30 प्रतिशत थी। अब समझा जा सकता कि बिहार से बड़े पैमाने पर पलायन क्यों हुआ है, 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 74.54 लाख लोग राज्य से बाहर हैं, जो राज्य-जनसंख्या का लगभग 7.2 % है।ग्रामीण बिहार में लगभग 18.8 % आबादी ‘माइग्रेंट’ है एवं इनमें 85.2 % पुरुष हैं।

कुछ और मानकों पर भी देखें तो 2023 में राष्ट्रीय प्रजनन दर जहाँ प्रति महिला 1.98 है वहीँ बिहार में प्रजनन दर 2.8 है यानी राष्ट्रीय औसत से अधिक। पूर्ण टीकाकरण वाले बच्चों की हिस्सेदारी, 71 प्रतिशत, भी 2019-21 के राष्ट्रीय औसत 93.5% से कम है। साक्षरता दर 61.8 प्रतिशत है, जो 2011 के राष्ट्रीय औसत 73 प्रतिशत से काफी कम है। लेकिन महिलाओं के मामले में प्रदर्शन और ख़राब है, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2020-21) के आकड़ों के मुताबिक महिलाओं की राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर लगभग 70.30% है जबकि बिहार की महिलाओं की 51.50% ही। 5 से 49 वर्ष की महिलाओं की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से 21.4 प्रतिशत अंक कम है। राष्ट्रीय औसत 40.7 से काफी कम महज 27.8% ही महिलाएं आठवीं या दसवीं पास हैं। तकनीकी दक्षता के आधार पर रोजगार के मामले में भी बिहार की महिलाएं देश में सबसे पीछे हैं 100 में मात्र 32 महिलाओं को ही टेक्निकल काम मिल पाता है। बिहार में ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री रखने वाली मात्र 0.4% महिलाओं को ही काम मिल पा रहा है. यह देश में सबसे कम है, राष्ट्रीय औसत 2.4% का है। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता के संदर्भ में महिला श्रम-भागीदारी में हिस्सेदारी भी बिहार में देश में सबसे कम है, देश का आंकड़ा 25 % – 27 % है और बिहार का 12 % – 15 %। महिलाओं की अनुमानित औसत वार्षिक आय देश स्तर पर जहाँ ₹ 1,03,000 है वहीँ बिहार की महिलाओं की ₹ 33,000 – ₹ 35,000 सालाना।

udiseplus.gov.in के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में महिलाओं का GPI राष्ट्रीय से बेहतर (1.12 माध्यमिक पर) है, साइकिल योजना आदि से नामांकन बढ़ा। उच्च शिक्षा में महिलाओं का नामांकन 49.2% (UG/PG) पहुंचा। लेकिन माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट 25.6% (राष्ट्रीय 14.1%) है, ट्रांजिशन रेट 31.5% (राष्ट्रीय 75.1%)है। उच्च शिक्षा GER 14.9% (राष्ट्रीय 28.4%), ग्रामीण क्षेत्र, गरीबी और बाल विवाह के कारन 24.5% लड़कियां 7-18 वर्ष में ड्रॉपआउट से प्रभावित होती है। कुल नामांकन में 87 लाख की गिरावट (2023-24), बिहार में सबसे अधिक रहा है। NEP 2020 के तहत माध्यमिक स्कूलों की कमी का आंकड़ा बिहार में राष्ट्रीय 9.8% के मुकाबले 2% है।

लिंगानुपात की बात करें तो बिहार में 2022 में प्रति 1,000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियों का जन्म हुआ था, जो पूरे देश में जन्म के समय का सबसे कम लिंगानुपात था। भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय की नागरिक पंजीकरण प्रणाली की रिपोर्ट के अनुसार, यह अनुपात 2020 में 964 था जो 2021 में घटकर 908 और 2022 में 891 हो गया है, यानी जन्म के समय लड़कियों की संख्या में पिछले तीन साल से लगातार गिरावट दर्ज की गई है। 2022 के नवीनतम आँकड़े में भी बिहार में प्रति 1,000 लड़कों पर 891 लड़कियों का लिंगानुपात है। राष्ट्रीय स्तर पर यह भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जन्म के समय का सबसे कम लिंगानुपात रहा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2010 से 2023 के बीच बिहार में महिला अपराधों में 40% की वृद्धि दर्ज की गई है। दहेज हत्या, घरेलू हिंसा और यौन अपराध अब भी गंभीर चुनौती बने हुए हैं। दहेज़ उत्पीड़न मामलों में बिहार उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है यूपी में इसकी संख्या 7151 है, बिहार में 3665 तक। और दहेज़ हत्या के मामले में भी एनसीआरबी रिपोर्ट कहती है कि साल 2023 में कुल 6156 महिलाओं की जान गई। इसमें उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 2122 मौतें हुईं। बिहार दूसरे नंबर पर रहा, जहां 1143 मौतें दर्ज की गईं। और यूनिसेफ की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 2.2 करोड़ लड़कियों की शादी 18 साल से पहले होती है और नाबालिग लड़कियों के विवाह के मामले में बिहार का स्थान उत्तर प्रदेश के बाद है। NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक ही वर्ष 2023 में पटना में अपहरण दर सबसे अधिक 71.3 प्रतिशत रहा। हत्या और अपहरण के मामलों में उत्तर प्रदेश और बिहार टॉप पर रहे। हत्या के दर्ज मामलों में देशभर में सबसे अधिक हत्याएं उत्तर प्रदेश में हुई। जबिक दूसरे नंबर पर बिहार राज्य रहा। 2018-22 में महिला-विरुद्ध अपराध के लगभग 89,038 मामले दर्ज हुए जो सीधे16.3 % का इजाफा है। यानी नीतीश ने केवल “सुरक्षित समाज” का नारा दिया, आंकड़े बताते हैं कि सुरक्षा का अनुभव आम नागरिक तक नहीं पहुंच पाया।
बिहार के इस चुनावी माहौल में लगातार 2005 से पहले के जंगलराज की बात की जा रही है, और नितीश कुमार धराधर महिलाओं के लिए योजनाओं और पैसों की बरसात कर रहे हैं। जबकि तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और है, हाँ ये जरूर है कि उन्होंने महिलाओं के लिए जो अच्छा किया उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन ये भी सच है कि 2025 चुनाव में खुद उन्हें अपने काम या रिपोर्टकार्ड पर भरोसा नहीं है, आत्मविश्वास की कमी ने ही इस बार JDU – BJP की डबल इंजन सरकार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को रेवड़ियों पर ला दिया। इसलिए 23 योजनाओं से महिला वोटरों को साधने की कोशिश की है। देखते हैं महिलाएं कितना आकर्षित होती हैं।
राजद समाचार से समाचार

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