आलो दास, नेहा कुमारी, सरिता डे और रेशमा मुर्मू की रिपोर्ट
भारत के केंद्र शासित प्रदेशों सहित 18 राज्यों में आदिवासियों के 75 ऐसे समूह की पहचान की गई है जिन्हें विशेष रूप से ‘कमजोर जनजातीय समूह’ (PVTG ) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह आदिवासी विकास निधि का एक बड़ा हिस्सा लेता है, कारण यह कि पीवीटीजी (PVTG) को अपने विकास के लिए अधिक धन की आवश्यकता होती है। इस संदर्भ में, भारत सरकार ने 1975 में सबसे कमजोर जनजाति समूहों को पीवीटीजी नामक एक अलग श्रेणी के रूप में पहचानने की पहल की और 52 ऐसे समूहों की घोषणा की जबकि 1993 में इस श्रेणी में 23 समूह और जोड़े गए, जिससे यह कुल 75 हो गए। ये समुदाय उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ,झारखंड इत्यादि जगहों पर बसे हुए हैं।झारखड में पाए जाने वाले PVGTs असरु,बिरहोर, बिरजिया ,पहाडी ,खारिया, कोनवास, माल पहाड़िया,परहिया, सौदा पहाड़िया, सवार है।
हमने झारखंड राज्य के पलामू जिले के अंतर्गत डाल्टनगंज थाना में स्थित पीवीटीजी गांव कुंभी खुर्द (सोढ़ महुआ टोला) का भ्रमण किया। हमने परहिया समुदाय की जीवन शैली, परंपरा, रीति-रिवाज आदि को करीब से देखा। इस गाँव में लगभग 34 घरों की 400 से 500 आबादी वाले जनसंख्या निवास करते हैं जिनका बसाव पहाड़ व जंगल से सटे क्षेत्रों में है, जो उनकी अपनी पसंदीदा जगह है, वे स्वयं को सदैव पहाड़ ,जंगल ,प्रकृति के करीब रखना पसंद करते हैं।
परहिया समुदाय के लोग विश्वास करते हैं कि-” खेतों में जो पुतला बनाकर रखा जाता है, उस पर एक दिन माता पार्वती की नजर पड़ी थी,तब कुछ ठहर कर उन्होंने अहसास किया कि यह तो बिल्कुल मनुष्य के समान है तो उन्होंने अपनी उँगली काटकर उसमें जान डाल दी। इसी तरह परहिया लोगों की उत्पत्ति हुई और इनका वंश आगे बढ़ता गया और वे पहाड़ों के करीब बसते गए। “यह लोग पार्वती माता, शंकर, कृष्णा, ब्रह्मा , विष्णु भगवान की पूजा-अर्चना करते हैं साथ ही उनके अपने पारंपरिक आस्था के भगवान है जिनकी वह विशेष रूप से पूजा करते हैं। इनकी आस्था काफी हद तक हिंदू रिवाजों से मेल खाती है। रोजगार के आयामों में जब उनकी खेती का समय खत्म होता है तो काफ़ी लोग पलायन करते हैं जिसमें अधिक संख्या पुरुषों की होती है। यह अवधि अधिकतम में 5-6 महीनों का होता है , जिसमें वे आस-पास के राज्यों के अलावा गुजरात, दिल्ली, मुंबई आदि जगहों पर भी जाते हैं, वहाँ से वापस आकर स्त्रियां अपने पति या भाई आदि को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं तथा घर प्रवेश करते वक्त पैर धोकर उनका सम्मान करती हैं। इनका निवास स्थान पहाड़ी क्षेत्र में होने के कारण वहाँ चावल की खेती बहुत कम होती है। वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले 1.5 सालों से नियमित रूप से बारिश नहीं होने के कारण चावल की खेती बिल्कुल भी नहीं हुई । इसके अलावा वे कांधा, गेठी, मन, लाहड़ दाल , मसूर दाल, खेसारी,भटूरे,मकई इत्यादि की खेती करते हैं ।
ये लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं, जंगलों से इनका जुड़ाव वंशजों से चलते आया है और इन्हें उम्मीद है कि उनकी आने वाली पीढ़ी सदैव ऐसे ही प्रकृति से जुड़ाव बनाए रखेगी इस बातचीत पर एक पुरुष ने कहा — “बाहर से लोग आते हैं और जंगल के पेड़ों को काटते हैं, मना करने पर जलाने पर भी उतर आते हैं, इसलिए मैंने कड़ी मेहनत से जंगल के और करीब अपना घर बना लिया है। ” इसी वार्तालाप के क्रम में पालतू पशुओं के विषय में उन्होंने अपनी आप बीती सुनाई कि व्यापारी उनके पशुओं को खरीदने आते हैं, जिस पर उन्हें उनके मनमानी मूल्य पर ही मजबूरन पशुओं ( बैल,बकरी) बेचना पड़ता है, हमारे मना करने पर वे दूसरे व्यापारियों से गठजोड़ बनाकर उसके काम में दखलंदाजी करते हैं और दूसरे व्यापार लोग भी उसके पशुओं को तब तक नहीं खरीदते जब तक उनके बोले हुए कम दाम पर ना मिले। बाजार बहुत दूर है, आने जाने का साधन भी सीमित है, इसलिए बाजार से खरीद बिक्री या लेनदेन बहुत कम करते हैं।
इसके अलावा हमने सिर्फ महिलाओं के समूह से बातचीत की , जिससे महिलाओं के समस्याओं का आकलन कर सके तो हमने पाया कि वहां के महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय है उस गांव में या उनके टोला में पुरुषों के अपेक्षा महिलाओं की संख्या ज्यादा थी क्योंकि अधिकतर पुरुष काम करने के लिए घर से बाहर थे ।
महिलाएं ही घर संभालती हैं वहाँ पानी की बहुत समस्या है, आस पास कही पानी नहीं था उन्हें गर्मी, धूप,में 1-2 km चलकर पानी लाना पड़ता था वो भी एक ऐसे कुएँ से जिसका पानी साफ नहीं है , वही पानी घर के सारे काम और पीने के लिए वो लोग इस्तेमाल करते हैं। वहाँ की महिलाएं जंगल से बांस लाकर उसके टोकरियां तथा तरह-तरह का सामान बनाती थी लेकिन वहां सड़क की स्थिति भी बहुत खराब थी जिस वजह से वहाँ तक कोई यातायात साधन भी नही होता जिससे वो अपना सामान बाहर बेचने जा सके इसलिए या वो पैदल चलकर या आसपास के जगह में बेचते थे। उनके पास भर पेट खाने के लिए 2 वक्त का खाना भी पर्याप्त नहीं वो बस 2-3 बार चावल खाते हैं, जो सरकारी राशन में मिलता है आता हैं, उसमें भी उन्हें पूरा पूरा राशन नहीं मिलता 35kg के जगह बस कभी 20 तो 22 ही मिलता हैं। शिकायत करने पर वे राशन ना देने का धमकी देते थे । वहाँ 10- 20km के दायरे में कहीं हॉस्पिटल भी नही था ,गर्भवती महिलाओं के लिए तो बहुत समस्याएं हैं, हॉस्पिटल जाते जाते कई बार तो या तो माँ की मृत्यु हो जाती या बच्चे की।
लोगों के पास पैसा न होने के कारण और कोई चिकित्सा सुविधा न होने के कारण महिलाएं जंगल से जड़ी बूटियां लाकर औषधि बनाती हैं, जैसे कि :-
● छीठ दवा- मलेरिया और बुखार के लिए
● नवजात शिशु के जन्म के पश्चात माता के स्तन से दूध लाने के निदान के लिए जड़ी-बूटी से ही दावा तैयार करते हैं।
● जड़ी में तले मिलाकर (विशषे प्रकार के घास में) गठिया रोग के लिए उपयोग की जाती है।
● करम एक घरेलू औषधि है, पेट दर्द और बुखार में प्रयोग किया जाता है
● आम की छाल पीली जॉन्डिस में इस्तेमाल होती है।
● नीम की पत्तियों को उबालकर चेचक के इलाज के लिए उपयोग किया जाता है ।
रोजमर्रा की जिंदगी में महिलाओं का संघर्ष वर्तमान समय में वहाँ रह रहे गांव के लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जिसमें पानी की समस्या सबसे मुख्य है । बारिश न होने के कारण वहाँ के कुएं ,तालाब सब सूख चुके हैं, पीने का पानी लाने के लिए वहां की महिलाओं को दूर तक पैदल जाना पड़ता है। उस पर भी दूर एक तालाब है। जिसमें पानी भी साफ नहीं है, वही पानी उसे गांव के लोग पीने के लिए उपयोग करते हैं।
रस्सी से खींच- खींच कर पानी उठाने और खेत खलियान होते हुए घर तक ले आना उनके लिए एक सघंर्ष है। गांव में एक ही स्कूल है, जिसमें आठवीं तक की कक्षाएं हैं, जहाँ दो ही शिक्षक हैं, जिनमें से एक ही आते हैं और एक ही पढ़ाते भी हैं। उनकी समस्या यह है कि एक शिक्षक होने के कारण वह सब पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और पाँचवी तक की पढ़ाई हो पाती है। वहाँ के बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए उसे गाँव से दूर शहर तक जाना पड़ता है परंतु लड़कियां पाँचवी के बाद पढ़ाई नहीं कर पाती है, क्योंकि कम उम्र में ही लड़कियों की शादी करवा दी जाती है। वहां के पुरुष परिवार के भरण पोषण के लिए कामकाज की तलाश में गांव से बाहर ही रहते हैं और महिलाएं गांव में रहकर ही अपने बच्चों का और घर के बुजुर्गों का ध्यान रखती हैं। अपने दैनिक जीवन यापन के लिए महिलाएं छोटे-मोटे काम भी करती हैं। जैसे :-
● खाने पीने की चीज घर पर बनाकर दूर गांव में जाकर बेचना जिसमें जलेबी, पकौड़ी ,नमकीन आदि है।
● खेती के समय दूसरे गांव के लोगों के खेतों में काम करना।
● आसपास के गांव में मजदूरी करना जहाँ वह अपने बच्चों को भी अपने ही साथ रखती है।
● महिलाएं एक साथ जंगल से बांस लाकर टोकरी या चटाई और तरह-तरह का सामान बनाती है।
● महिलाओं के साथ-साथ घर की लड़कियां भी कामकाज में मदद करती है जैसे कि महुआ के फूल को सूखा कर उससे नशीली सामग्री बनाकर बेचना तथा महुआ के बीज से तेल निकाल कर उसको बेचना और अपने परिवार का भरण पोषण करना।
घर में ही गर्भवती महिलाओं के बच्चों का जन्म होता है, जिसमें घर की महिलाएं और आसपास की महिलाओं से सहायता ली जाती है, क्योंकि अस्पताल गांव से काफी दूर है और वहां के रास्ते भी बहुत ही ख़राब है, अस्पताल तक जाने का कोई भी साधन उपलब्ध नहीं है पहले बजुर्गु दाई माँ हुआ करती थी जो महिलाओं के बच्चों को जन्म देने, महिला शरीर की जुड़ी बीमारियों का इलाज या नुस्ख़े उनके पास होते थे, पर बदलते समय के प्रभाव में उसे गांव में कोई दाई मां मौजदू नहीं है कई बार ऐसा हुआ भी है कि गर्भवती महिलाओं को अस्पताल ले जाते ले जाते या तो महिला की मृत्यु हो गई या फिर बच्चों की। वहाँ की सड़के इतनी ज्यादा टूटी-फूटी और खराब है की कोई पदैल भी ठीक से ना चल सके। गर्मियों के समय में उन्हें पानी की बहुत ही ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है,हर जगह पानी सखू जाता है पीने का पानी तक नहीं मिल पाता ठीक से
2 वर्ष से ठीक-ठाक बारिश न होने के कारण बहुत से लोगों को गांव छोड़कर बाहर काम करने या मजदूरी करने जाना पड़ता है क्योंकि वहां के लोग मुख्य रूप से खेती पर ही निर्भर रहते है .
