“धुरंधर” के लड़ाके

धुरंधरों की लड़ाई ! जी हाँ, यह लड़ाई ही है कोई ‘युद्ध’ नहीं जिसे देख देश-प्रेम जागे। धुरंधर फ़िल्म देखते हुए ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का एक दृश्य याद आ रहा था, आप सभी को याद होगा जबकि दो नवाबों को पत्नी के क्रोध से बचकर ‘शतरंज की बिसात और चालें’ छोड़नी पड़ती हैं। रास्ते में वे भेड़ों की लड़ाई देखने रुक जाते हैं। उनमें से एक रुस्तम नामक भेड़ पर बोली यानी सट्टा भी लगा देता है लेकिन हार जाता है। “शतरंज” जैसे बेहतरीन खेल के खिलाड़ी भेड़ों की लड़ाई को ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते और वहां से निकल लेते हैं।  धुरंधर ‘खिलाड़ी’ दूसरों के ‘खेल’ में देखने में समय और पैसा बर्बाद नहीं किया करते। मुझे कभी समझ नहीं आता कि तीतर,बटेर, मुर्गों या कि भेड़,बकरों की लड़ाई देखने वालों को क्या ही मजा आता है। उनका ख़ून बहता है और ‘ये’ ‘आदमी लोग’ मज़ा ले रहे (आनंद नहीं) होते हैं । घायल की देह से बहता खून आज मज़ा देने लगा है । फ़िल्म का संवाद भी है “घायल हूँ इसलिए घातक हूँ” वैसे यह जानना भी रोचक है कि तीतर, बटेर, मुर्गा, भेड़ और बकरा लड़ाई सभी पुल्लिंग हैं और इस क्रूर, हिंसक खून भरी (‘माँग’ नहीं) लड़ाई को देखने वाले भी अधिकतर आदमी ही होते हैं। शायद ‘अधिकतर’ भी नहीं ‘सभी’ कहना चाहिए। ‘धुरंधर’ फ़िल्म देखते हुए कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ मानो सभी लड़ाकों के सर पर भेड़ों की तरह सींग निकल आए हैं और एक दूसरे को लहू-लुहान कर रहे हैं। कौन कितना ज्यादा क्रूर हो सकता है ! इसका कंपटीशन चल रहा है। अजब-गजब तो यह है कि जिसने सबसे ज्यादा क्रूरता दिखाई उन्हीं अक्षय खन्ना को सबसे ज़्यादा प्रशंसा मिल रही है।

लगभग साढ़े तीन घंटे की इस “हिंसा-प्रधान” फ़िल्म में लड़कियों की क्या भूमिका रही होगी कहने की जरूरत नहीं वे लड़ाकुओं (तथाकथित ‘योद्धाओं’) को सुकून देने का खिलौना भर। एक बार कहानीकार उदय प्रकाश जी ने अपनी वॉल पर लिखा था ‘देखना चाहता हूँ कि फ़िल्मों में हिंसा कितने क्रूरतम रूप में हो सकती है’ उनके लिए एक फ़िल्म और ऐड हो चुकी है! संभवतः उनकी ओर से कुछ अलग विश्लेषण या निष्कर्ष सामने आएं। वैसे एक चीज और समझ में आई कि हक़, बारामूला के बाद धुरंधर तीसरी फ़िल्म है जो ‘कला के नाम’  पर अपनी पूरी सज-धज के साथ आई है। सिनेमा में हमेशा जनता की नब्ज को समझते हुए फ़िल्म निर्माण किया जाता रहा है। वरना लोग थियेटर तक कैसे जाएंगे! ओटीटी और टेलीग्राम की सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद लोग थियेटर में हिंसा का मज़ा लेने जा रहे हैं। तो बाकी सभी फैक्टर्स के अतिरिक्त समाज का मनोविज्ञान यहां काम कर रहा है। डिजिटल सूचना के युग में  आपने डोपामाइन के विषय में सुना ही होगा! डोपामाइन एक हार्मोन जो अपने रक्त प्रवाह में स्रावित होता है। यह “लड़ों या भागो” सिंड्रोम में भूमिका निभाता है।“लड़ो या भागो” प्रतिक्रिया अर्थात् किसी वास्तविक या काल्पनिक तनावपूर्ण स्थिति में खतरे से बचने या निपटने के लिए शरीर की प्रतिक्रिया । डोपामाइन की कमी से शरीर की हरकतें धीमी और कठोर हो सकती हैं जिसे ADHD यानी अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर । दो-ढाई दशकों पूर्व बच्चों को वीडियो गेम्स का चस्का लगा था। इनमें नज़र आने वाले एनीमेटेड लड़ाकू निरंतर अपडेटेड होते रहे हैं । इन गेम्स को बनाने वाले “डोपामाइन” के खेल भी समझ चुके हैं, इसलिए उनकी हिंसात्मक गतिविधियों को क्रूरतम किया जाता रहता है । PUBG,Free Fire, COD mobile या LUDO KING के अलावा स्ट्रीट फाइटर , मोर्टल कोम्बेट टेक्कन,सुपर स्मैश, किंग ऑफ़ फाइटर जैसी गेम्स में काल्पनिक किरदारों के बीच रोमांचक लड़ाईयां होती हैं और बच्चे और युवा सभी उनका मज़ा लेते हैं ।

क्रूरतम खेलों से रोमांच या मज़ा लेने की शुरुआत इन वीडियो गेम्स से हुई हो ऐसा नहीं है! वास्तव में वर्चस्व की यह लड़ाई सदियों पुरानी है । इस सन्दर्भ में मुर्गा लड़ाई जो एक रक्तपातपूर्ण खेल है जिसमें पालतू मुर्गों को लड़वाया जाता है । “गेम” खेल मनोरंजन या शौक के रूप में मुर्गे का उपयोग के लिए ‘गेमेकॉक’ का पहला दस्तावेज़ी प्रयोग 1636 में दर्ज़ किया गया ऐतिहासिक रूप में (16 वीं शताब्दी में) इस लड़ाई को उन्मादपूर्ण मनोरंजक गतिविधियों के लिए भी किया जाता रहा है अक्सर अखाड़े के किनारे घेरा बनाकर खड़े लोग सट्टेबाजी में अपनी पूरी सम्पति तक गँवा दिया करते थे ।

https://en.wikipedia.org/wiki/Cockfighting

जैसे कि मैंने शतरंज के खिलाड़ी में भेड़ों की लड़ाई का उदाहरण दिया तो उसके लिए मैंने गूगल बाबा से गुहार लगाई तो उन्होंने बताया कि ये RAMS: यानी बड़े सींग वाले नर मेढ अपने झुण्ड में सामाजिक पदानुक्रम (hierarchy) स्थापित करने और अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए लड़ते हैं । इन जंगली नर भेड़ों में एक-दूसरे के सिर पर टक्कर मारकर ‘अल्फ़ा मेल’ का दर्ज़ा हासिल किया जाता है जो एक स्वाभाविक प्रवृति होती है । याद आया “एनिमल” फ़िल्म का नायक भी नायिका पर रौब जमाने के लिए “अल्फ़ा मेल” पर एक टिप्पणी करता है और नायिका रीझ भी जाती है खैर! आने आने वाले समय में कुछ संस्कृतियों में इसे एक खेल के रूप में विकसित किया गया इसे राष्ट्रीय मनोरंजन के रूप में मनाया जाने लगा और इसमें सट्टेबाजी भी शामिल है । अधिकतर देशों में यह बैन हो चुका है कुछ देशों में आज भी यह स्वीकार्य है । https://en.wikipedia.org/wiki/Ram_fighting

(Ram fight in Tbilisi,1884)

गूगल बाबा कुछ मेहरबान हुए तो उन्होंने एक दिलचस्प पेज ओपन कर दिया https://www.theguardian.com/news/2018/feb/16/algeria-sheep-fighting-illegal-sport-angry-young-men इसमें बताया गया है कि Combat taa lkbech जिसका अल्जीरिया अरबी बोली में अर्थ है ‘भेड़ों की लड़ाई’, कुछ हद तक फुटबाल जैसी है । यह निष्क्रिय पुरुषों की दबी हुई ऊर्जा को बाहर निकालती है और उन्हें राष्ट्रीय, क्षेत्रवाद और पड़ोस के गौरव जैसी विभाजनकारी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने का मौका देती हैं।अजीब तो नहीं है कि ‘फुटबाल’ लड़कियों में अभी तक क्रिकेट की तरह लोकप्रिय नहीं हो पाया है हाँ,फ़िल्में इस पर भी बनी हैं । आगे लिखा था कि ‘भेड़ों की लड़ाई के लिए प्रशिक्षित करने वाले अल्जीरियाई लोग भय ,भ्रष्टाचार, कर्फ्यू के दुआर में पले-बढ़े हैं जिनके पास रोजगार के अवसर बहुत कम हैं और समाज में उनकी कोई सार्थक भूमिका नहीं है’। अल्जीरियर्स फोटोग्राफर युसूफ क्राचे का कहना है “इन लोगों को मौज-मस्ती करने देना अन्य परिस्थितियों में हिंसा कम करता है कि ये लोग राजनीति में उलजहने के बजाय तमाशों में ही उलझे रहें ।” आपको क्या लगता है “धुरंधर” जैसी फ़िल्में किन लोगों की ख़ुराक है?

इस तरह भले ही इन रक्तपाती रोमांचक क्रूरतम खेल की शुरुआत वीडियो गेम्स से न हुई हो लेकिन माँग और पूर्ति के नियमानुसार वीडियो गेम खेलने वाली अधीर जेनरेशन का डोपामिन (डिजिटल एडिक्शन) आज ‘और ज़्यादा’ ख़ून की माँग कर रहा है अत: ‘धुरंधर’ जैसे सिनेमा को ‘प्रोपेगंडा’ कहना बेवकूफी ही है । क्या सिनेमा क्या राजनीति दोनों ने देश और समाज की नब्ज़ को पकड़ा हुआ है। अभी हाल ही में 50 वर्ष पूरे करने वाली ‘शोले’ जिसे मनोरंजक फ़िल्म माना जाता है लेकिन इसमें अपने समय के हिसाब से हिंसा का चरम रूप था। गब्बर ठाकुर के परिवार का नरसंहार करता है,निहायत क्रूरता से ठाकुर के मासूम पोते के सीने पर गोली चला देता है। हालाँकि उस समय सेंसर बोर्ड ने अत्यधिक हिंसा के कारण क्लाईमेक्स पर आपति दर्ज की थी। फिर आता है उदारीकरण जो अपने साथ लाता है प्रेम कहानियाँ-मैंने प्यार किया, क़यामत से क़यामत तक, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे। साथ में लाता है पूँजी तो खर्च करने के लिए बाज़ार खुला बाज़ार!     

कहा जा रहा है कि ‘धुरंधर’ फ़िल्म हिंसा अपने चरम रूप में है क्या ये ठीक वैसे ही ही नहीं है जैसे 50 वर्ष पहले शोले में हिंसा का चरम रूप था । उत्तर आधुनिकता की एक विशेषता है कि यहाँ से आलोचना को अपदस्थ कर दिया गया है जबकि हम तो पूर्व आधुनिक युग में रिवर्स लौट रहे हैं लेकिन आलोचना को अब बर्दाश्त नहीं किया जाता साहित्य में यदि आलोचना (प्रशंसात्मक) कमज़ोर हो रही है तो राजनीति में इसका वज़ूद कुचल दिया गया है लेकिन आज सिनेमा के समीक्षक भी (यहाँ आलोचक शब्द नहीं प्रयोग होता) असमंजस में हैं, लगता है अंतिम साँस गिन रहे हैं । अन्यथा ऋतिक रोशन जैसे सुपर स्टार को अपनी टिप्पणी बदलनी नहीं पड़ती । कहावत है “मुर्गा जान से गया और खाने वाले को मज़ा भी न आया” वो दिन दूर नहीं जब और-और-और की माँग पर ये ‘खून’ वीडियो गेम्स से बाहर बहना शुरू हो जाएगा । ये नायक मानो पर्दे से निकलकर सड़कों पर उतर आयेंगे। समाज का यह हिंसात्मक रवैया उसे किस दिशा में ले जाएगा? क्या ये मान न लिया जाए कि समाज क्रूरता की हदें पार कर रहा है? फिलहाल तो यह फ़िल्म ओटीटी के समय भी सिनेमाघरों के लिए संजीवनी का काम कर रही है युवा भले ही गर्त में धंसे चले जा रहे हो! धुरंधर फ़िल्म का अंत पार्ट -2 के संकेत पर होता है यानी हमारे डोपामाइन को हिंसा के अगले क्रूरतम (चरम?) रूप के लिए तैयार किया जा रहा है।’वर्चस्व के खिलाड़ी’ भेड़ों को लड़वा रहेंगे और आम जन बहते खून का मज़ा!

और अंत में- आपकी जानकारी के लिए बतला दूं कि धुरंधर फ़िल्म में कई दफा विहंगम दृश्यों में (ड्रोन) पाकिस्तान /कराची को दिखाया है। अगर ‘पाकिस्तान’ ही देखना है तो पाकिस्तान के सीरियल यूट्यूब पर उपलब्ध है, देखे जा सकते हैं  आपको पता लगेगा कि वहाँ पर भी हमारे भारत जैसे ही संवेदनशील इंसान रहते हैं वहाँ की औरतें भी अपने ‘हक’ के लिए अपने ढंग से लड़ रही हैं ।

शिवानी सिद्धि

स्वतंत्र पत्रकार  

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