समाज, संस्कृति और पितृसत्ता से ‘जूली’ का संघर्ष

जूली’ फ़िल्म के पचास वर्ष

हिंदी सिनेमा की प्रेम कहानियाँ अमूमन एक सीधी-सरल रेखा की तरह विवाह की परिणति तक पहुँचती हैं। अमीरी-गरीबी की आड़ में हिंदी सिनेमा का प्रेम जाति-धर्म की चुनौतियों को नज़रंदाज़ कर देता है । हिंदी सिनेमा की तुलना में दक्षिण भारतीय सिनेमा विशेषकर मलयालम सिनेमा हमेशा प्रगतिशील रहा है । ‘जूली’ मलयालम फिल्म ‘चट्ट्कारी’ का ही हिंदी रीमेक थी जिसके निर्देशक थे के.एस. सेथूमाधवन । 1975 का वर्ष हिंदी सिनेमा के लिए शानदार और ऐतिहासिक रहा । दर्शक जहाँ एक ओर ‘शोले’ में हिंसा का चरम रूप देख अचंभित-रोमांचित थे तो दूसरी ओर ‘जय संतोषी माता’ का धार्मिक उन्माद उन्हें थियटर तक खींच कर ला रहा था । हिन्दी सिनेमा की रोमांटिक-ट्रेजेडी-कॉमेडी प्रेम कहानियों के बीच एक एंग्लो इंडियन लड़की जूली  महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आती है । सतही तौर पर एक प्रेमकथा और पारिवारिक संघर्ष को दिखाती ‘जूली’ में धर्म, संस्कृति और सामाजिक रूढ़ियों का टकराव स्पष्ट दिखाई देता है। पतिता, धर्मपुत्र , एक फूल दो माली, हमराज , दाग़ जैसी फ़िल्में उदाहरण हैं जिसमे नायिका को विवाह पूर्व गर्भवती होने के कारण संघर्ष करना पड़ा । विवाह पूर्व बार गर्भवती होने पर ‘जूली’ आत्महत्या नहीं करती बल्कि बच्चा होने के बाद भी उसे पालने का निश्चय करती है लेकिन माँ की धमकी के आगे विवश हो जाती है । ‘जूली’ का संघर्ष इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक भेदभाव का भी है । एक एंग्लो इंडियन परिवार जिनका रहन-सहन, खान-पान आज भी भारतीय परिवेश के अनुरूप नहीं हो पाया । ‘जूली’ की माँ (नादिरा) के किरदार में विस्थापित प्रवासी का दर्द भी झलकता है जो भारत को अपना मुल्क नहीं मानती । जूली के पिता की विदेशी गाड़ी का बीच रास्ते में रुक जान एस बात को रेखांकित करता है कि उनका जीवन यहाँ ठहर-सा गया है ।   जबकि ‘जूली’ को उसकी सहेली उषा का हिन्दू-परिवार अपने परिवार से आकर्षित करता है ।

सत्तर का दशक जबकि मध्यमवर्गीय परिवारों के भीतर आधुनिकता और परंपरा के टकराव गहरे स्तर पर सामने आ रहे थे। शिक्षित युवाओं को पाश्चात्य संस्कृति लुभा रही थी । ‘जूली’ फिल्म  इन्हीं सामाजिक और सांस्कृतिक टकरावों का एक मार्मिक चित्रण है।इसलिए फ़िल्म सिर्फ  प्रेमकथा नहीं , बल्कि उस दौर के भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति, धर्म और विवाह की राजनीति, और परिवार की रूढ़ियों के बीच प्रगतिशील दृष्टिकोण की खोज का आख्यान है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में ‘जूली’ एक साहसिक प्रयोग के रूप में भी याद की जाती है। ईसाई युवती ‘जूली’ है, जो एक हिंदू युवक से प्रेम करती है और विवाह-पूर्व गर्भवती हो जाती है। यहाँ ‘स्त्री और नैतिकता’ के प्रश्न फ़िल्म में स्पष्ट होता है कि विवाह-पूर्व गर्भधारण के लिए केवल लड़की को दोषी माना जाता है। उषा अपनी माँ को कहती है ‘जूली ने शशि को खराब नहीं किया बल्कि शैतान तो ये आपका बेटा है जिसने जूली को शादी से पहले माँ बना दिया जो अब माँ-बाप दोनों के होते अनाथालय में पल रहा है’। उषा जो जूली और शशि के रिश्ते की गवाह है वह स्त्रियों के बीच भावनात्मक सह-अस्तित्व का प्रतीक भी बन जाती है ।

अन्य पक्ष यहाँ यह भी है कि  जूली की स्थिति सिर्फ “लड़की” होने से कठिन नहीं है, बल्कि एक एंग्लो इंडियन  समुदाय से होने सके कारण उसका संघर्ष और जटिल हो जाता है। उसके साथ होने वाले इस भेदभाव को उषा प्रखरता से उजागर करती है, तब उसका पिता भी साथ देता है उसका सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार प्रगतिशील भी है और यहाँ हम ‘सिस्टरहुड’ की खूबसूरत झलक देखते हैं । ‘जूली’ का उन हज़ारों स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियन्त्रण करने के लिए बाध्य किया जाता है। फ़िल्म स्त्री की देह पर नियंत्रण की प्रवृत्ति की गहरी पड़ताल करती है। जूली का दयनीय मातृत्व हमें विचलित करता है जब उसे अपने बच्चे को दूध तक पिलाने नहीं दिया जाता।  जूली की माँ हिंदू लड़के से विवाह करने के बजाय उसके बच्चे को अनाथालय भेजने को तैयार हो जाती है। दूसरी ओर, लड़के की माँ केवल इस वजह से लड़की और बच्चे को अस्वीकार करती है क्योंकि वे ईसाई समुदाय से हैं। यह अंतर्द्वंद्व दर्शाता है कि भारतीय समाज में धर्म और जातीय पहचान प्रेम और मानवीय रिश्तों पर हावी रहती है। लेकिन उत्पल दत्त का प्रगतिशील चरित्र नादिरा को चुनौती देता है- ‘जाओ उस बच्चे को गोद में उठाओ और बताओ कि उसकी जात या धर्म क्या है ?  वह सामाजिक बंधनों से ऊपर उठकर मानवीयता की बात करता है। वह धर्म या जाति की दीवारों को नहीं मानता और जूली को बहू के रूप में स्वीकार करने को तैयार रहता है। उनका यह दृष्टिकोण भारतीय सिनेमा में प्रगतिशील सोच का प्रतीक है। मानवीयता के सन्दर्भ में इसी तरह ‘धूल का फूल’ का गीत ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इन्सान की औलाद है इंसान बनेगा’ उल्लेखनीय है।

फ़िल्म में नायक विवाह करने को तैयार भी है, किंतु परिवारों की संकीर्ण सोच विशेषकर दोनों की माएँ इस रिश्ते को अस्वीकार कर देती है। जो इस तथ्य को भी उजागर करता है कि पितृसत्ता हो या धार्मिक रुढ़ियाँ स्त्रियाँ उनकी सबसे बड़ी पोषक और संवाहक हैं। जबकि जूली का पिता अपने परिवार विशेषकर जूली से बहुत प्रेम करता है लेकिन उसे हर वक्त नशे में दिखाया गया है जो ट्रेन भी शराब पीकर चलाता है। जूली की यथास्थिति से वह अवगत नहीं और समय से पहले ही मर जाता है । फ़िल्म में जूली, मैगी और उषा तीनों स्त्रियाँ पितृसत्ता से अलग-अलग स्तर पर टकराती हैं जूली का किरदार मातृत्व प्रेम के संघर्ष के साथ विद्रोही बनता है जबकि उसकी माँ मैगी परंपरागत मातृत्व और सामाजिक दबाव का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन बेटी की पीड़ा उसे बदलने को विवश करती है। उसकी सहेली उषा नई पीढ़ी की प्रगतिशील आवाज़ है, जो सहानुभूति और दोस्ती से बदलाव का संकेत देती है।

इस स्तर पर फ़िल्म केवल एक निजी प्रेमकथा नहीं रह जाती, बल्कि प्रेम और विवाह,समाज संस्कृति और  धर्म के बीच देह पर स्त्री के अधिकार पर भी गंभीर प्रश्न उठाती है। फ़िल्म अपने समय के समाज की मानसिकता, धार्मिक पूर्वाग्रहों और सांस्कृतिक संक्रमणों को भी दर्शाती है। फ़िल्म में हिन्दू और गैर-हिन्दू (एंग्लो इंडियन) पात्रों का चित्रण विशेष ध्यान देने योग्य है। हिन्दू परिवार को जहाँ उदार, सहिष्णु और प्रगतिशील बताया गया है, वहीं ईसाई परिवार को संकीर्ण मानसिकता और शराब-प्रेमी से जोड़ा गया है। हालाँकि ईसाई परिवार को शराबी और असंयमी दिखाना एकमात्र सच्चाई नहीं है । अकेले घर में नायक शशि भी नायिका जूली को शराब पीने पर विवश करता है यह कहकर कि ‘क्यों तुम तो पीती होंगी न अपने घर में’ जो वास्तव में शोचनीय है । इस दृष्टि से यह फ़िल्म एंग्लो इंडियन परिवारों के प्रति नकारात्मक छवि को उभारती है। मिश्रा जी नामक किरदार नादिरा और जूली दोनों को मात्र इसाई होने के कारण आसान उपलब्ध वस्तु मान लेता है । बाद में जूली मिश्रा का विरोध करती है कि- ‘अगर कल को कोई तुम्हारी बेटी को कोई 300 रुपये में खरीदना चाहे तो तुमको कैसा लगेगा’ इसी तरह जूली एक दूकानदार को भी थप्पड़ मार देती है जब वह उसके साथ छेड़छाड़ करता है । वह अपनी माँ से शिकायत करती है कि ‘आप नहीं जानती कि वो हमें किस कीमत पर उधार दे रहा है।’  फ़िल्म सामाजिक यथार्थ के साथ ही सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को भी दिखाती है। एक दृश्य में जूली उषा के पिता से कहती है ‘आपके घर से कितनी अच्छी सुगंध आती है जबकी हमारे घर से अंडे मांस मछली शराब की और एक बदबू वो जो इन सबसे मिलकर बनी है।’  

गीतों की बात करें तो ‘ऊँची ऊँची दीवारों सी इस दुनियां की रस्में’ जैसा गीत समाज की कठोरता और प्रेम की तरलता के बीच संवाद स्थापित करती है। राजेश रोशन का संगीत फिल्म की आत्मा है। हिंदी सिनेमा में पहली बार कोई गीत पूरा अंगेजी में है ‘माय हार्ट इस बीटिंग’ एक अनूठा सफल प्रयोग रहा जिसका आज भी रिकॉर्ड नहीं टूट पाया यद्यपि प्रीति सागर को इसके लिए फिल्फेयर पुरस्कार नहीं मिल पाया । यह गीत एंग्लो इण्डियन  संस्कृति के सम्मिश्रण और परिवार की जीवन्तता को सामने लाता है। गीत का फीमेल गेज़ जो जूली की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है आज भी प्रासंगिक है । फिल्म के लिए लक्ष्मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का व नादिरा को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला ।  विक्रम मकंदार, नादिरा, रीता भादुरी, ओमप्रकाश, बाल कलाकार श्रीदेवी और उत्पल दत्त जैसे कलाकारों के प्रभावी अभिनय से सजी यह फ़िल्म जूली अपने समय से आगे जाकर समाज में स्त्री के संघर्ष और संभावनाओं की कहानी कहती है। समाज, संस्कृति, धर्म, विवाह, प्रेम, प्रगतिशीलता और स्त्री भावों की मार्मिक अभिव्यंजना का समावेश है ‘जूली’। विवाह, धर्म और नैतिकता के प्रश्नों पर समाज अब भी गहरी रूढ़ियों से बँधा हुआ था। इस मायने में आज भी यह फ़िल्म प्रासंगिक है। हम जानते हैं कि भारतीय समाज अभी भी अंतर्धार्मिक विवाह, स्त्री की स्वायत्तता और नैतिकता के सवालों से जूझ रहा है।  

सभी चित्र गूगल से साभार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles