सम्मान से नवाजे गए जमीन से जुड़े लेखक

साहित्य अकादेमी के सभागार में आज, 31 मार्च 2018 को ‘रमणिका फाउंडेशन सम्मान 7’ का आयोजन हुआ. ‘रमणिका फाउंडेशन सम्मान 7’ के अंतर्गत दो आदिवासी-विमर्श, दो दलित-विमर्श, एक स्त्री-विमर्श, एक साम्प्रदायिक सद्भाव व जनवादी लेखन तथा एक अनुवाद के लिए सात लेखकों को सम्मानित किया गया जिनके नाम निम्न हैं: विक्रम चौधरी (गुजरात), स्ट्रीमलैट डखार (मेघालय), मलखान सिंह (आगरा), सूरजपाल चौहान (नोएडा), गीताश्री (गाज़ियाबाद), सलाम बिन रज़्ज़ाक (महाराष्ट्र), सूर्य सिंह बेसरा (झारखंड).


इस आयोजन के मुख्य अतिथि, प्रसिद्ध कवि व लेखक, अशोक वाजपेयी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि बड़ा लेखक वह है, जो मृत्यु के बाद भी लिखता रहे और ऐसा तभी होता है जब उसकी रचनाएं मृत्युपर्यंत भी अलग-अलग पाठकों द्वारा पढ़ी जाएं और अलग-अलग तेवर में उसका निष्कर्ष निकाला जाता रहे. उन्होंने यह भी कहा कि लेखक को संस्कति, परम्परा बचाते हुए साहित्य लिखने से विरत नहीं होना है. भाषा पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा पर अत्याचार करने में– सरकार, मीडिया और जातिप्रथा सभी शामिल हैं. हमारा सार्वजनिक संवाद आजतक इतना झगड़ालू और असत्य कभी नहीं रहा. सच की भाषा आज अल्पसंख्यक हो गई है. लेखक समुदाय को सच की इस अल्पसंख्यता को समझना चाहिए. ऐसे वक्त में भाषा की मानवीयता, सत्यकथन,साहसिकता,विपुलता,सूक्ष्मता को बचाना साहित्य समाज का कर्तव्य है.जो लेखक अपने समय से महरूम रहेंगे,वे बहुत बड़ा लेखक नहीं बन पाएंगे. लेख वही है,जो दूसरों पर आरोप लगाने की बजाए खुद को कटघरे में खड़ा करे .हम रमणिका गुप्ता का आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने मुझे इस सम्मान समारोह में बुलाया

रमणिका फाउंडेशन व सभा की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि लेखकों का काम है दर्द का रिश्ता जोड़ना, मन से मन का रिश्ता जोड़ना. आज छद्म राष्ट्रीयता का हव्वा दिखाकर हमें हिंदुत्व की तरफ धकेला जा रहा है. लेकिन राष्ट्र अथवा राष्ट्रियता है क्या ? इसे भी परिभाषित करना होगा हमें. राष्ट्र केवल देश की सीमाएं ही नहीं होतीं, उसमे रहने वाले लोग भी राष्ट्र के दायरे में आते हैं. जनता के बिना राष्ट्र का क्या मतलब? आज छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुत्व परोसा जा रहा है. यह एक कटु सत्य है की भारत में राष्ट्रवाद की भावना अंगरेज़ लेकर आये थे. भारत तो रजवाड़ों का एक गुच्छ था. वे आपस में ही लड़ते रहते थे और अपने विरोधी से निपटने हेतु विदेशियों को बुला लाते थे. राष्ट्रीयता की भावना भारत में कभी थी ही नहीं. यहां राजशाही थी. अब आप लेखकों को यह फैसला करना है कि आप कौन-सी व्यवस्था चाहते हैं—सामन्ती, राजाशाही या समाजवादी?

भारतीय संस्कृति में पूजा करके ही दायित्व से मुक्ति पा ली जाती हैं, अनुपालन नहीं किया जाता. हमे निर्णय लेना होगा कि हम सामन्ती व्यवस्था चाहते हैं या जनवादी समाजवादी व्यवस्था. यह लेखकों को चुनना होगा. हमारे यहाँ संस्कृति और भाषा की अनेकता हैं, जिसे मित्रवत अनेकता की जगह शत्रुवत अनेकता में बदला जा रहा है.
गुलामी का स्रोत है – ईश्वर और धर्म. ये दोनों आपको तर्कहीन बनाते है. धर्म कहता है कि सोचो मत, आदेश का पालन करो . प्रश्न मत करो – यह धर्म का तकाजा होता है . लेखक को यह फैसला खुद करना है कि उन्हें तर्क के साथ चलना है या तर्कहीनता के साथ. संवेदनशीलता कभी तर्कहीन नहीं होती. लेखक को यह जिम्मेदारी उठानी है कि वह समाज को प्रबुद्ध बनाए . छद्म राष्ट्रवाद से बचें, नहीं तो कल आप नहीं बोल पाएंगे. जो हिंदूवादी गाय की पूजा करते है वे गाय को प्लास्टिक खाकर मरने के लिए सड़क पर छोड़ देते है और जब वह मर जाती है तो उसका मुर्दा भी नहीं उठाते है, दलितों को बुला कर उठवाते है किन्तु जिन देशों में लोग गाय खाते है वे लोग गाय को एयर कंडीशन में रखते है और सर्दी के मौसम में कंबल ओढा के रखते है .

दलित साहित्य पर भी हमने काम किया . आज दलितों को धर्म और भगवानवादी व्यवस्था से बाहर निकलने की दरकार है . दलितों को अपने श्रम की महत्ता को जानना होगा.

1998  पूरे देश से आदिवासी रचनाएं मंगवाना और उन्हें छापना शुरू किया, यह भी बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था, लेकिन हमने ये चुनौती स्वीकारी. और 43 आदिवासी भाषाओं का अनुवाद करवा कर उनकी रचनाएं प्रकाशित की , जिनमे 15 पूर्वोतर की आदिवासी भाषाएं भी शामिल है.


हमने स्त्री मुक्ति के साहित्य को भी प्रकाशित किया. जिसके तहत 44 भाषाओं का अनुवाद करवाकर कविता एवं कहानी-संग्रह प्रकाशित करने का निर्णय लिया. इस परियोजना के तहत ‘हाशिए उलांघती स्त्री’ के नाम से दो काव्य-संग्रह, एक हिंदी भाषी कवयित्रियों का और दूसरा 43 भाषाओं की कविताओं का, ‘‘हाशिए उलांघती औरत’ कहानी श्रंखला में हिंदी के ३ खंड, बाकी 9 खण्डों की 22 कहानियां हम छाप चुके हैं, बाकी 22 भाषाओं की कहानियों का काम जारी है. दलित स्त्रियों ने मिलकर ‘स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण’ अंक निकाला. 2000 से हमने लेखकों को  सम्मान देने शुरू किए . आज हम साथ लेखकों को पुरस्कृत कर रहे हैं . प्रत्येक लेखक को प्रशस्ति-पत्र, 50,000 रुपये का चेक व शॉल द्वारा सम्मानित किया गया.



सोमदत्त शर्मा ने सम्मेलन में आए सभी लेखकों का स्वागत करते हुए कहा कि रमणिका फाउंडेशन का यह सम्मेलन ऐसे वक्त में हो रहा है जब हमारा देश और समाज हाशिए पर पड़े समूह, समाज, लेखकों पर एक हमला है. देश एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और साहित्य इससे अछूता नहीं रह सकता क्योंकि साहित्य शून्य में पैदा नहीं होता , समाज की वास्तविकता के बीच ही जन्मता है. साहित्य की हर सरंचना को जनवादी सोच के साथ जोड़ना ज़रूरी है.

इन पुरस्कारों के अतिरिक्त वर्ष 2017 में युद्धरत आम आदमी पत्रिका में प्रकाशित अनुपम वर्मा की कहानी ‘बदसूरत’ को सर्वश्रेष्ठ कहानी सम्मान दिया गया, जिसके तहत उन्हें प्रश्स्ति पत्र, 5000 रुपये की राशि तथा शाल भेंट की गई.


पुरस्कृत लेखकों ने भी अपने-अपने अनुभव सबके साथ साझा किए —

गुजरात के चौधरी आदिवासी समूह की भाषा के लेखक विक्रम चौधरी ने कहा कि इस सम्मान को पाने से अब वे अधिक आंतरिक चिंतित  हो गए हैं क्योंकि सम्मान पाने से अब उनकी जिम्मेदारी और बढ़ गई है, जिसे वो बखूबी निभाएंगे . वे पुरस्कृत राशी से मातृभाषा में लिखी कविताओं की किताब प्रकाशित करवाएंगे. आदिवासी भाषा में शिक्षा ना होने के कारण आदिवासी परम्परा, संस्कृति , ज्ञान और अस्तित्व खत्म होते जा रहे हैं. अत: मातृभाषा में शिक्षा होना जरूरी है . इन्होंने अपनी मातृभाषा में एक गीत भी प्रस्तुत किया .


पूर्वोत्तर के मेघ्लय की खासी भाषी लेखिका स्ट्रीमलैट ड्खार ने अपने वक्तव्य में कहा कि वे स्कूल के दिनों से लिखती-पढ़ती रही हैं. प्रतियोगिता में भाग लेने के कारण उन्हें लिखने की प्रेरणा मिलती गई और जब उनकी पहली किताब प्रकाशित हुई तब वह आगे लिखने के लिए प्रेरित हुई . उन्होंने रमणिका फाउंडेशन का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हुए फाउंडेशन कार्य को सराहा. उन्होंने बताया कि वे महाभारत का अनुवाद भी खासी में कर चुकी हैं. इस राशि का उपयोग भी वे अनुवाद में ही करेंगी.   पारंपरिक खासी गीत गाकर उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया .

उत्तर प्रदेश के दलित वरिष्ठ लेखक मलखान सिंह अपना अनुभव बांटते हुए कहते है कि वंचित समाज का जीवन जैसे पहले था, अभी भी वैसा ही है लेकिन आज वो सूली पर लटका हुआ है आज. ऐसे खतरनाक माहौल में वंचित समुदाय के साहित्य को सम्मान करना एक साहसिक कदम है . उन्होंने सम्पूर्ण समाज की तरफ से रमणिका फाउंडेशन का आभार प्रकट किया और कहा कि वे सम्मान से प्राप्त राशी से 25 हजार रूपये आम्बेडकरवादी लेखक संघ को दलित लेखकों को संगठित करने हेतु देंगे  .

दिल्ली के दलित लेखक सूरजपाल सिंह चौहान ने अपने जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि लोग आज भी अपनी जाती छिपाते हैं. दलितों में हीन भावना नहीं जा रही है . गैर दलितों के भीतर भी दलितों के प्रति अभी तक सम्मान भावना पैदा नहीं हुई है. दलितों को अपना सम्मान खुद पाना है . उन्होंने भी अपनी कविता ‘मेरा गांव’ पढ़कर अपना भाषण समाप्त किया.


लेखिका गीता श्री किसी कारणवश अपना पुरस्कार लेने के लिए उपस्थित नहीं थी, उनकी अनुपस्थिति में रश्मि भारद्वाज ने गीता श्री का पुरस्कार ग्रहण किया. गीता श्री जी ने अपना वक्तव्य लिख कर भेजा था, जिसे रश्मि भारद्वाज ने पढ़ा. उन्होंने सावित्री बाई फुले के नाम से सम्मान मिलने पर ख़ुशी जताई. हर स्त्री का जीवन कंटीला होता है जो मुक्ति की राह पर चलती हैं. हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को आसन रास्ता देती चलती है, सावित्री बाई फुले ने यही किया- महिला शिक्षा की मशाल उठाकर. उन्होंने आगे लिख कि आज वे चुनौती, बेचैन और ख़ुशी तीनों महसूस करत हैं पुरस्कार प्राप्त कर. आज भय का आलम यह है कि कई स्त्रियों स्त्री-विमर्श का ठप्पा अपने से हट रही हैं . यदि स्त्रीवादी लेखन करना गुनाह है, तो यह गुनाह उन्हें पसंद है.

अनुवादक सलाम बिन रज्जाक साहब ने कहा कि यह उनका हिंदी का पहला पुरस्कार है, जिसके लिए रमणिका फाउंडेशन के आभारी है. लेखन का सिलसिला चलते रहना चाहिए, रुकना नहीं चाहिए. रमणिका फाउंडेशन दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के लिए बहुत अच्छा काम कर रही है. लेखक अपने जमाने की चिड़िया है, जो सबसे अधिक संवेदनशील होती है. इंसान के अंदर का दर्द ही उसका निर्वाण है.

सूर्य सिंह बेसरा ने अपने अनुभव बांटते हुए कहा कि रमणिका फाउंडेशन के साथ मेरा दिली रिश्ता है. यह मेरा व्यक्तिगत सम्मान नहीं बल्कि पूर्ण संथाली साहित्य का सम्मान है. मैं  फाइटर से राइटर बना. मैं इस राशी का उपयोग संथाल विश्वविद्यालय के बच्चों की किताबों पर करूँगा . जहाँ राजनीती में आप फिसल जाते है वहां साहित्य आपको संभाल लेता है .

पंकज शर्मा ने फाउंडेशन की रिपोर्ट पढ़ी और फाउंडेशन की 1997 से लेकर 2018 तक की 20 वर्षों की यात्रा का ब्यौरा दिया. इस पूरे कार्यक्रम का संचालन सम्पादक, युद्धरत आम आदमी, सूरज बड़त्या ने किया.
रमणिका फाउंडेशन की सदस्य अर्चना वर्मा ने कहा कि आप सभी यहाँ आए, कार्यक्रम का सम्मान बढ़ाया और रमणिका फाउंडेशन को अधिक मजबूत बनाया, इसके लिए आप सभी का धन्यवाद .


कार्यक्रम में दिवंगत हुए केदारनाथ सिंह, सुशील सिद्धार्थ, रजनी तिलक और पीटर पॉल को श्रद्धांजलि देते हुए दो मिनट का मौन रखा गया. 

सुमन कुमारी 

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