अम्बेडकर की प्रासंगिकता के समकालीन बयान

पुष्पा यादव.

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक : व्हाट बाबासाहेब अम्बेडकर मीन्स टू मी

प्रकाशक : दी शेयर्ड मीरर पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद

प्रकाशन वर्ष : ई-बुक – 2017; पेपरबैक – फरवरी, 2019

मूल्य : 150/-

राउंडटेबल इंडिया और सावरी, अम्बेडकरवादी  चिंतन से प्रभावित दो वेब-पोर्टल हैं, जिन्होंने समकालीन भारत में जाति को विश्लेषित करने वाले प्रयासों को अभिव्यक्ति की जगह दी है, और जाति-विरोधी विमर्शों की लम्बी चली आ रही दलित-बहुजन परंपरा को बनाए रखने और पनपाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. डॉ अम्बेडकर के जन्म के 125वीं वर्षगांठ के अवसर पर राउंडटेबल इंडिया और सावरी ने अपने पाठकों से ‘व्हाट बाबासाहेब अम्बेडकर मीन्स टू मी’ विषय पर लेख आमंत्रित किए. भारत के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से अलग-अलग जातियों, आयु, पेशों और लैंगिक पहचान के लोगों ने इस विषय पर अपने लेख भेजे, जो बाबासाहेब अम्बेडकर की व्यापक लोकप्रियता व निरंतर बनी प्रासंगिकता का प्रतीक है. ऐसे 27 लेखों का प्रकाशन द शेयर्ड मीरर पब्लिशिंग हाउस के द्वारा ‘व्हाट बाबा साहेब अम्बेडकर मीन्स टू मी’ शीर्षक नामक पुस्तक के रूप में किया गया है. लगभग 160 पृष्ठों की यह पुस्तक वर्ष 2017 में प्रकाशित हुई. 2017 में इस पुस्तक का इलेक्ट्रोनिक संस्करण प्रकाशित हुआ और इसे ‘दी शेयर्ड मीरर’ व ‘अमेजन’ की वेबसाइट पर मुफ्त डाउनलोड के लिए उपलब्ध कराया गया. इस पुस्तक को डाउनलोड के लिए मुफ्त क्यों उपलब्ध कराया गया है, इस पर पुस्तक के प्रकाशक का कहना है कि इंटरनेट एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसके जरिए बहुत बड़ी आबादी तक बिना अधिक मानवीय व भौतिक संसाधनों के पहुँचा जा सकता है. प्रिंट का काम लम्बा, अधिक उद्यम मांगने वाला और विशेषकर उन नव-प्रकाशकों के लिए बहुत मुश्किल भरा है जिनके पास परम्परागत पूंजी और वितरण के चैनल उपलब्ध नहीं है. प्रकाशकों को आशा है कि वे निकट भविष्य में इसे प्रिंट में लायेंगे, पर रोजमर्रा उभरते इन नई आवाजों को अधिक से अधिक दर्शकों के मध्य अभिव्यक्ति देने की आतुरता ने उन्हें इसे इलेक्ट्रोनिक रूप में शीघ्रता से मुफ्त उपलब्ध कराने को प्रेरित किया (दीक्षा,2017). फरवरी, 2019 में यह पुस्तक पेपरबैक संस्करण में भी आ चुकी है.

उत्तर-औपनिवेशिक भारत में जाति की मौजूदगी को नकारने; जाति अतीत का अवशेष है जो पूंजीवाद के विकास के साथ स्वतः लुप्त होने को बाध्य है जैसे तर्क गढ़कर; सामाजिक विश्लेषण की महत्वपूर्ण केटेगरी के रूप में जाति के प्रयोग से परहेज करके; व अन्य अनेक उपायों से जाति को अदृश्य बनाने, सामान्यीकृत करने और उच्च-जाति वर्चस्व के पुनरुत्पादन की राजनीति की जाती रही है. इस राजनीति का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा जाति-विरोधी विमर्श और उसके चिंतकों को अकादमिक जगहों से बहिष्कृत करना रहा है. पर नम्बे के दशक में आकर भारतीय अकादमिया में अम्बेडकर के चिंतन को जगह मिलनी शुरू हुई और आज सत्ता व ज्ञान-निर्माण के वर्चस्वशाली केन्द्रों में अम्बेडकर व राष्ट्र के सामाजिक पुनर्निर्माण में उनके चिंतन के महत्व पर विचार करने का ज़ोर बढ़ा है (कुमार,2008). जाति-विरोधी विमर्श को सत्ता-संरचनाओं (ज्ञान-निर्माण की संस्थाओं, स्कूली और विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम, मीडिया, नीति-निर्माण) में जगह नहीं दी जाती रही है, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि कांचा इलैया 1994 से 1997 तक तीन मूर्ति लाइब्रेरी, दिल्ली में किए एक प्रोजेक्ट से जुड़ा अनुभव साझा करते हैं कि लाइब्रेरी में ‘गांधीवना’ और ‘नेहरुवना’ शीर्षक के अंतर्गत गाँधी और नेहरु पर कई रैक में किताबें उपलब्ध थी, पर अम्बेडकर की अपनी रचनाएँ जो तब तक महाराष्ट्र सरकार द्वारा कई भागों में प्रकाशित हो चुकी थीं, लाइब्रेरी में मौजूद नहीं थीं (इलैया,2010). अम्बेडकर या किसी भी अन्य दलित-बहुजन नायक व उनके समाज के संघर्षों को तीन-मूर्ति लाइब्रेरी जैसी ज्ञान-निर्माण की उच्च-वित्तपोषित संस्थाओं सहित स्कूली और विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में भी शामिल नहीं किया जाता रहा है. चार राज्यों बिहार, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के कक्षा 6 से 8 तक पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्यपुस्तकों का वंचित वर्गों की उपस्थिति एवं छवि की दृष्टि से ऋतुबाला(1997) ने अध्ययन किया. चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों के 2268 पृष्ठों में से केवल 3 पर अम्बेडकर के चित्र मौजूद थे, और चित्र के नीचे अम्बेडकर का नाम मौजूद था, पर अम्बेडकर के चिंतन व सामाजिक योगदान पर कोई चर्चा सम्मिलित नहीं थी (बाला,1997).

‘व्हाट बाबासाहेब अम्बेडकर मीन्स टू मी’ पुस्तक में संकलित तमाम लेखों में शिक्षा व्यवस्था में जाति के मुद्दे पर मौजूद चुप्पी लगातार उभर कर सामने आती है और यह समझ विकसित होती है कि ये चुप्पी अनायास नहीं है बल्कि जाति पर आलोचनात्मक चर्चा की संभावनाओं को शिक्षा के दायरों में कुचलना उच्च-जाति वर्चस्व के पुनरुत्पादन की राजनीति का हिस्सा है. सनम रूही रेड्डी पुस्तक में शामिल अपने लेख में लिखती हैं कि ‘बाबासाहेब हमारे पाठ्यक्रमों में एक राजनीतिक विचारक या आधुनिक भारत के शिल्पकार के रूप में कभी नहीं आए, यह न केवल विश्वासघात की तरह महसूस होता है, बल्कि एक सुनियोजित बहिष्करण भी है.’

महितोश मंडल का कहना है कि विश्वविद्यालयों में दुनिया भर के तमाम चिन्तक पढ़ाए जाते हैं पर अम्बेडकर की सतत अनुपस्थिति और बहिष्करण की राजनीति के पीछे अम्बेडकर के प्रति ब्राह्मणवाद की घृणा है, और यह घृणा दुश्चिंता से उपजी है. दरअसल अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म और ब्राह्मण सभ्यता के विरुद्ध कोई आधारहीन शोर-गुल नहीं किया है, बल्कि वे कानून के विद्यार्थी थे और बहुत ही तर्कपूर्ण व प्रासंगिक ढ़ंग से उन्होंने ब्राह्मणवाद की आलोचना प्रस्तुत की है. यदि युवा विद्यार्थी अम्बेडकर के आमूल परिवर्तनवादी विचारों को गंभीरता से पढ़ना शुरू करें, तो अकादमिक जगत से लेकर राजनीति, अर्थव्यवस्था, मीडिया, साहित्य, सिनेमा, और इत्यादि तक फैले राष्ट्र-व्यापी ब्राह्मणवादी साम्राज्य को भयंकर चुनौती मिलेगी. इसलिए अम्बेडकर का चिंतन ब्राह्मणवाद को दुश्चिंता में डालता है और यह बहिष्करण की राजनीति कार्य करती है.

अम्बेडकर के बहिष्करण की राजनीति का श्रुति हर्बर्ट को भी अहसास है जो लिखती हैं कि जिस बौद्धिक-सांस्कृतिक जगत में वे बड़ी हुई उसमें मार्क्स मौजूद थे, भागवत गीता, संस्कृत, कर्नाटक संगीत, ढ़ेरों भजन, रामायण और महाभारत, और क्रांतिकारी मानववादी कविताएँ मौजूद थी. बड़े होते हुए उनकी सवर्ण हिन्दू सांस्कृतिक दुनिया और वैचारिक मार्क्सवादी दुनिया दोनों के तत्वों से भेंट हुई, पर इस दुनिया में अम्बेडकर नहीं थे. अम्बेडकर के चिंतन से श्रुति का परिचय जब हुआ तो, जो बात महितोश कह रहे हैं कि अम्बेडकर के आमूल परिवर्तनवादी विचार युवा विद्यार्थी को बहुत प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, वह श्रुति के साथ घटित हुआ. श्रुति लिखती हैं कि ‘मेरे जीवन में अम्बेडकर की खोज हुई और मेरी दुनिया बदलने लगी. मेरी शिक्षा के दौरान सवर्णों की जिस दुनिया के साथ मैं सहज बन गई थी, बाबासाहेब अम्बेडकर को पहली बार पढ़ने के बाद वह दुनिया मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थी. मुझे अचरज हुआ कि क्यों किसी ने पहले मुझे इस महान व्यक्ति के बारे में नहीं बताया.’

शिक्षण संस्थाएं अपने पाठ्यक्रम और विमर्श की जगहों से अम्बेडकर व जाति विरोधी चिंतन को प्रवेश से रोकती रही हैं, पर इन संस्थाओं में दलित-बहुजन विद्यार्थियों के प्रवेश ने इन संस्थाओं में अम्बेडकर व जाति विरोधी चिंतन को भी प्रवेश दिलाया है. स्वाति काम्बले, श्रुति हर्बर्ट, सुरवी नायक और मधुरा रावत के लेखों में यह उभरा है कि शिक्षण संस्थाओं में दलित-बहुजन विद्यार्थी समूहों व संगठनों की मौजूदगी ने इनकी जाति-विरोधी राजनीतिक चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. गौरी पटवर्धन का लेख इन अर्थों में रुचिकर है कि यह एक उच्च जाति महिला के जाति-व्यवस्था और अम्बेडकर के बारे में सीखने की प्रक्रिया का बयान है, और यह विस्तार से इसकी व्याख्या करता है जो गौरी कहती हैं कि ‘अम्बेडकर को अम्बेडकर के लोगों के बिना नहीं पढ़ा जा सकता है’.

हालाँकि सत्ता-संरचनाओं ने अम्बेडकर व उनके चिंतन के अदृश्यीकरण में सक्रिय भूमिका निभाई है, पर दलित व उत्पीड़ित आम जनता के लिए अम्बेडकर प्रेरणा और साहस के उत्कट स्रोत रहे हैं, इसलिए इस उत्पीड़ित जनता ने अपनी मौखिक परम्पराओं, लेखों, लोकगीतों, मूर्तियों, तस्वीरों, अम्बेडकर जयंती, महापरिनिर्वाण दिवस जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से अम्बेडकर को अपने रोजमर्रा के जीवन में शामिल रखा है. पुस्तक यह समझ उत्पन्न करती है कि यह दलित-बहुजन आम जनता द्वारा तमाम रूपों में की गई लम्बी और लगातार मेहनत है जिसने जाति-विरोधी चिंतन को जिन्दा बनाए रखा और प्रसारित किया है.

प्रद्न्या जाधव लिखती हैं कि बाबासाहेब के लोगों ने किसी पाठ्यपुस्तक में बाबासाहेब को जगह मिलने की उम्मीद के बिना बड़े सम्मान के साथ उनको अपने दिलों में सहेज के रखा. प्रद्न्या उनके समुदाय में नामकरण, मृत्यु और उत्सवों के अवसर पर गाए जाने वाले भीमगीतों की परम्परा से परिचय कराती हैं और बताती हैं कि किस तरह अम्बेडकर के संघर्षों और उनके चिंतन को सरलतम ढ़ंग से वचिंत समुदायों के मानस में पहुँचाने में भीमगीतों ने महती भूमिका निभाई है.

प्रद्न्या जाधव की तरह स्वाति काम्बले के समुदाय में भी वह समृद्ध मौखिक परम्परा मौजूद है जो बाबासाहेब को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती रहती है. स्वाति का कहना है कि ‘मेरे लिए, बड़े होने की प्रक्रिया बाबासाहेब के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को जानना और उसके माध्यम से स्वंय को जानना था’.

स्वाति काम्बले, राही गायकवाड़, प्रद्न्या जाधव, प्रद्न्या मंगला और प्रज्ञा चौहान के लेखों ने उन सामुदायिक परम्पराओं के आख्यान उपलब्ध कराए हैं जिसमें अम्बेडकर गुथें हुए हैं, जिन्होंने जाति विभेदकारी समाज के मुंह पर अम्बेडकर की मौजूदगी का हर रोज दावा किया है. अम्बेडकर की मौजूदगी का दावा जाति-विरोधी आन्दोलन के इतिहास में समृद्ध महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों तक सीमित नहीं है बल्कि यह दूर-दूर तक फ़ैल चुका है. बंसीधर दीप का लेख उड़ीसा के कालाहांडी, जो भारत के आर्थिक रूप से सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है, में अम्बेडकरवाद के पहुँच जाने और प्रसार के सफ़र की तस्वीर प्रस्तुत करता है. अम्बेडकर को जिन्दा रखने और उनके विचार के प्रसार के लिए संसाधनहीन अम्बेडकरवादियों व आम-लोगों ने जो लम्बी और लगातार मेहनत की है, उसका नतीजा यह है कि आज दलितों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी के जुड़ाव की धुरी अम्बेडकर हैं. इतिहास के इस पड़ाव पर आकर उच्च-जाति ताकतें यह समझ रही हैं कि अब उनके लिए अम्बेडकर को ख़ारिज करना फलदायक नहीं है और इसलिए वे अम्बेडकर की विरासत को हथियाने के आक्रामक एजेंडे पर चल पड़ी हैं. राहुल सोनपिम्पले का वैचारिक-तार्किक रूप से समृद्ध लेख अम्बेडकर में जगती उच्च-जातियों की हालिया रूचि के पीछे के इतिहास और अम्बेडकर को हथियाने की राजनीति की परतें खोलता है. 

दलित-बहुजन समुदायों के लिए अम्बेडकर की मौजूदगी का दावा करना बिलकुल आसान नहीं रहा है, बल्कि इसके लिए दलित समुदायों और व्यक्तियों ने उच्च जातियों की ओर से भयंकर हिंसा, अपमान और बहिष्कार झेला है. इन लेखों ने यह समझाया है कि अम्बेडकर जयंती मनाने की दलितों की कोशिशों को उच्च जातियों की ओर से दलित बस्तियों को जलाने, हिंसक झडपें, अम्बेडकर की मूर्तियों को तोड़ने, दलितों को गाँव से बाहर धकेलने, उनके विरुद्ध झूठे मुकदमें दायर करने, जल आदि सार्वजनिक सुविधाओं तक उनकी पहुँच को बाधित करने से लेकर उनकी हत्या तक जैसी प्रतिक्रियाएँ मिलती रहती हैं. इन तमाम खतरों के बावजूद आखिर क्यों दलित-बहुजन समुदाय अम्बेडकर का उत्सव मनाने में अपने पूरे साहस और उत्साह से लगा रहा है? इस समुदाय और उसके लोगों के लिए अम्बेडकर के होने के आखिर वे क्या मायने हैं कि अपने बहुत सीमित संसाधनों व ऊर्जा को पीढ़ी दर पीढ़ी वे अम्बेडकर की विरासत को बनाए रखने में निवेश किए जा रहे हैं?

एक ऐसा समाज जो अंतर्निहित रूप से असमान है, और जाति के निचले पायदानों पर रखे गए लोगों के लिए अनेक रूपों में अपमान, वंचना, बहिष्करण और उत्पीड़न की व्यवस्था करता है, उस समाज में बाबासाहेब अम्बेडकर की मौजूदगी इस समुदाय के लिए राहत है, हौसला है, आशा है, प्रेरणा है, मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान का दावा है.

प्रज्ञा चौहान लिखती हैं, कि बाबासाहेब उनके अस्तित्व का प्रतीक हैं क्योंकि अम्बेडकर के दर्शन और राजनीतिक कृत्यों ने प्रज्ञा को यह समझने में मदद दी है कि एक गरिमापूर्ण जीवन कैसा होता है, और यह सुनिश्चित किया है कि एक नागरिक के संवैधानिक अधिकारों के साथ वे ऐसा जीवन जी सकती हैं. विनय शिंदे का कहना है कि बाबासाहेब ने उन्हें मजबूत और उद्देश्यपूर्ण बनाया है. लक्ष्मी पार्वती के लिए बाबासाहेब प्रेरणा के उत्कट स्रोत है जिन्होंने उनका अनुसरण करने वाले लोगों के लिए जीवन-लक्ष्य को बहुत ऊँचा स्थापित किया है.

अम्बेडकर ने इस पुस्तक के लेखकों को उनके सामाजिक सन्दर्भ की समझ विकसित करने में और विभिन्न स्तरों के उत्पीड़न को चुनौती देने में सहायता की है और सशक्त बनाया है.

अम्बेडकर के प्रति दलित-बहुजन समुदाय के गहरे लगाव को समझना उच्च जातियाँ के लिए मुश्किल रहा है और वे इसे व्यक्ति-पूजा, अंधभक्ति कहकर उपहास करती रहती हैं|  अरविन्द बौद्ध ने ‘हम पूजा नहीं करते, हम शुक्रिया अदा करते हैं, हम बाबासाहेब को सलाम करते हैं’ शीर्षक से एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है. अरविन्द के शब्दों में, ‘हममें से कईयों ने उन्हें नहीं पढ़ा है क्योंकि हममें से अधिकांश लोग अशिक्षित हैं. लेकिन क्या यह उनके आदर्शों को जानने से हमें रोकता है? जवाब है बिलकुल नहीं. हम अशिक्षित हो सकते हैं लेकिन हम जानते हैं कि वह किसके लिए खड़े हुए हैं. हम जानते हैं जो वह हमें बताना चाहते हैं. हम जानते हैं कि उन पर क्या गुजरी. हम जानते हैं कि वह हमें क्या पाता देखना चाहते थे. हम जानते हैं कि हमारे लिए उनका क्या सन्देश है. हम जानते हैं कि उनकी हमारे लिए क्या प्रासंगिकता है.’ अम्बेडकर के चिंतन को ‘जाति-चिंतन’ या ‘दलितों के लिए चिंतन’ के रूप में घटा के प्रचारित करने की साजिश होती रही है लेकिन अम्बेडकर का बौद्धिक जगत बहुत व्यापक रहा है. अरविन्द बौद्ध के शब्दों में, ‘बाबासाहेब ने कई विषयों पर लिखा: अर्थव्यवस्था, इतिहास, नृविज्ञान और राजनीति उनमें से कुछ हैं. उन्होंने लिखा कि कैसे ये विषय हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी को प्रभावित करते हैं. उन्होंने लगातार लिखा कि एक समतामूलक समाज स्थापित करने के लिए क्या आवश्यक है? हमारे बाबासाहेब यह हैं. वह प्रेम की बात करते हैं, वह प्रेम का सपना देखते हैं, और वह प्रेम सिखाते हैं. यही कारण है कि हम उनसे प्रेम करते हैं.’

शिव शंकर दास का लेख पुस्तक में शामिल एक विचारोत्तेजक लेख हैं, जो मौजूदा जाति-विरोधी आन्दोलन के लिए आत्म-चिंतन का अवसर उपलब्ध कराता है. डॉ अम्बेडकर के राजनीतिक स्कूल के विकास के प्रयास को कामयाब नहीं बनाया जा सका, शिव शंकर दास इसके प्रति निराशा प्रकट करते हैं, और ऐसी संस्थाओं की मौजूदगी की जरुरत को समझाते हैं.

यह एक बेहद महत्वपूर्ण किताब है, जिसे दलित-बहुजनों के इतिहास को समझने, समकालीन अनुभवों व प्रतिरोधों को महसूस करने और भविष्य की उम्मीदों को सुनने के लिए पढ़ा जाना जरुरी है.

सन्दर्भ-सूची

Deeksha, J.  (2017, June 7). BR Ambedkar Diwas: Read this book about how Ambedkar continues to help GenX decipher caste. Retrieved from https://www.edexlive.com/news/2017/jun/07/heres-why-people-are-downloading-this-book-on-dalit-students-accounts-of-their-lives-582.html

Ilaiah, K. (2010). The weapon of the other: Dalitbahujan writings and the remaking of Indian nationalist thought. New Delhi: Pearson Longman.

Kumar, P. K. (2008). Indian Historiography and Ambedkar: Reading History from Dalit Perspective. Indian Journal for South Asian Studies. Vol.1.No.1. January -June 2008, Pondichery University, Pondicherry, Pp. 123-143.

बाला, ऋतु.(2003). स्कूली ज्ञान का सामाजिक पक्ष. शिक्षा विमर्श, वर्ष 5, अंक- 2, जून-जुलाई. दिगंतर: जयपुर.

पुष्पा यादव महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में अनुवाद अध्ययन विभाग में एम.फिल. शोधार्थी के रूप में अध्यनरत हैं.

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ISSN 2394-093X
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