क्या फिल्म-कलाकारों के भरोसे ही चुनाव जीता जायेगा!

पूनम मसीह, जनसंचार की स्नातकोत्तर छात्रा हैं

तापमान गर्म है, मध्य भारत में तो पारा मार्च के महीने अंतिम सप्ताह में  ही 40 के पार था. इसके साथ ही देश में 7 चरणों में चुनाव हो रहे हैं. लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व का आगाज हो गया है. इस दौरान जनमाध्यमों के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रसारित और प्रकाशित होने वाली खबरें भी लोगों खूब को रोमांचित और ज्ञानवित करेंगी. इस चुनाव में सोशल मीडिया का बहुत बड़ा रोल है. चुनाव  प्रत्याशियों को प्रत्येक तक पहुंचाना इसके साथ ही उनके द्वारा पिछले पांच साल में किए गए कामों को दिखाया जा रहा है.

सभी पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. लगभग प्रत्येक पार्टी ने किसी न किसी स्टार को अपनी पार्टी में जगह जरुर दी है . भले ही वह किसी भी फील्ड में स्टार हो. बीजेपी ने ने गौतम गंभीर को पार्टी में शामिल तो कर लिया लेकिन उस लड़ने की सीट नहीं दी. शायद अगर बात बन जाती तो उसे सीट भी दी जा सकती थी. इसके इतर मोदी के विपक्ष में रहने वाली ‘दीदी’ (ममता बनर्जी) ने अपनी  पार्टी में सबसे ज्यादा कलाकारों को जगह दी गई है. बात करें पश्चिम बंगाल की तो यहां कलाकारों को ही लगता है सबसे ज्यादा सीटें देने का प्रचलन शुरु हो गया है. इतना ही नहीं देश के लगभग सभी पार्टियों चुनावों के समय कलाकारों को जनता के सामने प्रस्तुत करती है और उनका कीमती वोट लेती है.

मैं पश्चिम बंगाल से हूं तो मैं बात भी उसकी ही करुंगी. लोकसभा चुनाव में दीदी को तो लगता है कि कलाकारों को अलावा कोई नजर नहीं आया. इस बार दीदी की पार्टी से आसनसोल से एक्ट्रेस मुनमुन सेन, पश्चिमी मेदिनीपुर से दीपक घोष जो कि ‘देव’  नाम से प्रसिद्ध है और बसीरहाट से बंगाली एक्ट्रेस से नसीर जहां को टिकट दिया गया है. वहीं आसनसोल में बीजेपी के केंडिटेड भी कलाकार ही है. जिसने पिछली बार आसनसोल लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर पश्चिम बंगाल में बीजेपी को मजबूत बनाया था. इसलिए भी इस बार भी उन्हें आसनसोल से प्रत्याशी घोषित किया गया है. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि मात्र पांच साल में एक बार आने वाले नेता अपने शहर का भविष्य सुधार पायेगा.जिन जिन जगहों पर कलाकारों का टिकट दिया है क्या वहां ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था कि जिसे अपने लोकसभा की राजनीति की जानकारी नहीं थी. ताज्जुब वाली बात है आसनसोल पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे  बड़ा शहर है यहां कोयले का भंडार है. यहीं देश का पहला स्टील कारखाना कुल्टी में खोल गया था. साइकिल बनाने वाली कंपनी थी. चितरंजन में रेल इंजन बनाने का कारखाना है देश की सबसे गहरी कोयला खदान है. इसके बाद भी इतने बड़े शहर में कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं था जो अपने क्षेत्र के चुनाव प्रत्याशी बनता. आसनसोल में एक राज्यस्तीर विश्वविद्यालय इसके कई सारे महाविद्यालय भी है. इसके अलावा इंजीनीयरिंग कॉलेज है. प्रत्येक कॉलेज और यूनिर्वसिटी में छात्रसंघ पूरी तरह से एक्टिव है. लेकिन फिर भी इनके पास ऐसा कोई सदस्य नहीं था जो चुनाव में खड़ा हो सके और पार्टी को जीत दिला सकें. तृणमूल कांग्रेस की तरफ से इस बार एक्ट्रेस मुनमुन सेन को खड़ा किया गया है. क्या मुनमुन सेन के अलावा दीदी  के पास कोई और विकल्प नहीं था. मुनमुन तो एक कलाकार है वह तो अपने क्षेत्र में माहिर होगी लेकिन क्या जरुरी है कि वह राजनीति में भी माहिर हो. मेरा मानना है कि क्या जरुरत है किसी कलाकार को राजनेता बनाने की. आसनसोल में ऐसा कोई नहीं था जो आसनसोल की सीट को  बचा सकता है, जिसके लिए एक एक्ट्रेस को मैदान में उतरा गया है. उस क्षेत्र में यूनिर्वसिटी और कॉलेजों में छात्रसंघ इतना कमजोर है जो एक अच्छा प्रत्याशी नहीं दे पा रहा. या फिर किसी और को आगे जाने ही नहीं दिया जाता है. आसनसोल पश्चिम  बंगाल का एक  हिंदी भाषीय इलाका है यहां प्रत्याशी भी हिंदी भाषी ही होना चाहिए था ताकि वह ज्यादा आत्मीयता के साथ लोगों को साथ जुड़ सकता. आसनसोल के मेयर जितेंद्र तिवारी को क्या दीदी इस लायक नहीं समझ रही थी जबकि उन्होंने तो आसनसोल में इतना काम किया है. दूसरे सबसे बड़ी  बात दंगे के बांद शहर को जल्द-जल्द सुधारने में अहम भूमिका निभाई. तो फिर दीदी ने उन्हें सीट क्यों नहीं दी. जबकि वह तो शुरु से ही राजनीति से जुड़े हुए हैं. उनका तो भविष्य ही राजनीति थी तो फिर उन्हें क्यों नहीं.

क्या अब राजनीति सिर्फ कलाकारों के भरोसे की जा रही, क्योंकि कहीं न कहीं प्रत्येक व्यक्ति की कलाकारों के साथ भावना जुड़ी होती है. नेताओं पर भले ही लोग भरोसा न करें लेकिन अपने  पसंदीदा कलाकारों को इतने बार देख और सुन लेते हैं कि उन पर भरोसा बहुत जल्दी हो जाता है और वे उन्हें अपना कीमती वोट दे देते हैं. विडंबना यह है कि लगातार सभी बड़ी पार्टियों में कलाकारों या उनके रिश्तेदारों को टिकट देने की प्रवृत्ति और सतह पर आ रही है. कहीं से पूनम सिन्हा, कहीं से रविकिशन तो कहीं निरहुआ.

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ISSN 2394-093X
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