भारत में दलित स्त्री के स्वास्थ्य की स्थितियां और चुनौतियाँ

संदीप कुमार मील
समाज के किसी भी तबके की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के निर्माण में उसके स्वास्थ्य की स्थितियाँ बहुत निर्णायक भूमिकाएँ निभाती हैं। साथ ही, इसका दूसरा पक्ष देखा जाए तो यह भी उभरता है कि इन परिस्थितियों पर ही मनुष्य का स्वास्थ्य स्तर निर्भर करता है। पहला पक्ष पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दिये जाने वाले तर्क का है जो मानता है कि व्यक्ति स्वतंत्र प्रतियोगिता में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है। जबकि दूसरा पक्ष उन आधारों को रेखांकित करता है जो संसाधनों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न हो जाते हैं।

चूंकि राष्ट्र राज्य की संकल्पना में सरकार के प्रमुख कर्तव्यों में यह भी शामिल है कि वह अपने नागरिकों को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराये ताकि वे उत्पादन में सक्रिय भूमिका निभा सकें। सरकार की संकल्पना के साथ जिस तरह से बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा का विचार जुड़ा है उसी तरह से प्राकृतिक और अन्य मानवीय आपदाओं जिसमें सभी तरह की बीमारियाँ भी शामिल उनसे भी सुरक्षा का विचार भी नीहित है। यहाँ सिर्फ बीमारियों के अभाव या उनके ईलाज मात्र को ही स्वास्थ्य के मानकों में शामिल नहीं किया जा सकता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा निर्धारित पौषटिक भोजन और अन्य स्वास्थ्य के लिए आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता भी सरकार को ही सुनिश्चित करनी होती है। स्वस्थ और शिक्षित नागरिक ही उस देश की विकास की दिशा तय कर पाते हैं। इसलिए लोक कल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य को प्रमुख स्थान देकर उसे सार्वजनिक क्षेत्र में रखने का प्रावधान किया जाता है ताकि लोग कम से कम उस व्यवस्था में अपने जीवन के अधिकार को तो सुरक्षित रख पायें। पूंजीवादी समाजों में स्वास्थ्य एक निजी दायित्व की तरह से देखा जाता रहा है जिसमें जो अमीर वर्ग होता है उसके पास स्वास्थ्य के सभी साधन उपलब्ध होते हैं और गरीब वर्ग महामारियों की चपेट में आकर जीवन हार जाता है। विकसित देशों में स्वास्थ्य के उच्च स्तर के कारण वहाँ पर औसत आयु विकासशील देशों और अल्प विकसित देशों की तुलना में ज्यादा है।

स्वास्थ्य किसी भी देश की स्थाई पूँजी के रूप में देखा जाता है और इसे व्यापक रूप में समझा जाये तो यह वैश्विक मानवाधिकार बन जाता है जो पृथ्वी पर जन्म लेने वाले हर मनुष्य को मिलना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन शिशुओं और माताओं के संबंध में कहता है, ‘‘लोगों का हवा में साँस लेने, भोजन प्राप्ति, पेयजल, उन्हें जिन दवाइयों और टिकों की आवश्यकता होती है उनकी उपलब्धता हम सुनिश्चित करते हैं।’’ 1

विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस टिप्पणी से दो तर्क स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आते हैं, पहला तर्क तो यह है कि विश्व में स्वास्थ्य सुविधाएँ सुनिश्चित नहीं हैं, लोग उनसे वंचित हैं। इसलिए ऐसे मंचों से यह घोषणा की जाती है। बहुत से देशों द्वारा ये सुविधाएँ अपने नागरिकों को उपलब्ध नहीं कराई जा रही हैं। या तो उन देशों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव है कि वे स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं या यह भी देखा जाता है कि अपनी जनता के स्वास्थ्य को लेकर उन देशों की सरकारें प्रतिबद्ध नहीं हैं। उनकी प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य उतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता हो लेकिन मेरे विचार से जब भी किसी देश के ‘राष्ट्रीय हित’ का प्रश्न आता है तो उसकी संप्रभुताओं, अखण्डता, स्वतंत्र विदेश नीति के बाद जनता के स्वास्थ्य का स्थान आता है। अगर किसी देश की जनता स्वस्थ्य नहीं है तो वह बहुत समय तक न तो उसकी अखण्डता स्थायी रह सकती है और न ही सम्प्रभुता।

कुछ देशों में दोनों ही कारण देखे जा सकते हैं जिनमें अधिकांश अफ्रीका के अविकसित देश हैं। दूसरा तर्क यह उभरकर सामने आता है कि हवा, भोजन और पानी जैसी प्राथमिक चीजों का समाज से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसलिए जो शक्तियाँ समाज में ताकतवर होती हैं वे इन पर आधिपत्य स्थापित कर लेती हैं या उनकी सुविधाओं के विस्तार के कारण इनकी उपलब्धता और स्वच्छता पर प्रभाव पड़ता है। जिस तरह से विश्व में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उसके पीछे अमीर देशों और अमीर लोगों का अति-प्राकृतिक दोहन सामने आ रहा है उसके कारण भी लोगों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव देखा जा सकता है। इस तर्क के साथ उस देश की सरकार अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को पूरी तरह से राज्य नियंत्रण से मुक्त कर देते हैं।

विश्व की माध्यिका आयु का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं के देशों में माध्यिका आयु कम है और औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में यह ज्यादा है। सन् 2018 में विश्व में सबसे कम माध्यिका आयु अफ्रीका महाद्वीप के एक देश नाईजीरिया की है जो 15.3 वर्ष है। जापान में यह 46.9 वर्ष है और भारत में 27.6 वर्ष है।2   इन देशों में मृत्यु की अनिश्चितता तुलनात्मक रूप से विकसित देशों से ज्यादा है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहाँ के निवासी स्वास्थ्य संबंधी उचित उपचार के अभाव में जीवन प्रत्याशा से पूर्व में भी काल कल्वित हो जाते हैं।

अब भारतीय संदर्भ में स्वास्थ्य की स्थितियों की चर्चा से पूर्व यहाँ के ऐतिहासिक संदर्भों का विवेचन करना होगा। चूंकि भारतीय समाज विश्व की तरह पितृसत्ता का वाहक रहा है और साथ ही, यहाँ पर जाति व्यवस्था सम्पूर्ण समाज के संचालन को निर्धारित करने वाली प्रमुख संरचना रही है। इसलिए जो बाह्मणवादी पितृसत्ता में ज्ञान पर आधिपत्य रखने वाला वर्ग था उसी के पास उपचार से संबंधित विज्ञान अध्ययन-अध्यापन का दायित्व और अधिकार दोनों थे। वंचित समाज जिसमें शुद्र प्रमुख हैं उन्हें ज्ञान से दूर रखने के लिए सभी धार्मिक कानून और दण्ड विधान रचे गये थे। शुद्र के कानों में ज्ञान पहुँचने पर शीशा भरने के अमानवीय दण्ड विधान ने हमेशा से शुद्रों को स्वास्थ्य से दूर रहने के लिए अभिशप्त कर दिया। उस स्वास्थ्य से जो तात्कालिक राजसत्ता द्वारा पोषित होता था। ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य की राजसत्ता के उत्तरदायित्व के बारे में तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

बाह्मणवादी पितृसत्ता ने विज्ञान में होने वाली प्रगति को ही अवरुद्ध कर दिया क्योंकि ज्ञान को जब पैतृक सम्पत्ती के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है तो उसकी द्वंद्वात्मकता समाप्त हो जाती है और वह विकास के रास्ते पर जाने की बजाय यथास्थितिवादिता से होकर रुढ़ीवाद तक पहुँच जाता है। काँचा इल्लैया कहते हैं, ‘‘हिन्दू समाज ने निस्संदेह ने अपने आध्यात्मिक फासीवादी सार के कारण और उस सामाजिक निष्क्रियता के भी कारण, जो जाति व्यवस्था का सीधा परिणा थी, कभी भी किसी वैज्ञानिक नवाचार को होने नहीं दिया। 3  जिस समाज में नवाचारों के स्वागत के लिए लोकतांत्रिक और सम्मानजनक परिवेश नहीं उपलब्ध होता है वहाँ पर लोग नए प्रयोग करने के प्रति प्रोत्साहित ही नहीं होते हैं, वे एक परम्परागत ढ़ाँचे में सोचते रहते हैं। ऐसी स्थिति लम्बे समय तक चलने के कारण यह एक सांस्कृतिक मनोविज्ञान का रूप धारण कर लेती है जो समाजिक संचालन की शक्तियों का एक दिशा दे रही होती है। ऐसे समय में लोग इन परम्पराओं और सोच के दायरों से बाहर सोचने का साहस भी नहीं कर पाते हैं।

दलित स्त्री के स्वास्थ्य की स्थितियों पर उनके काम के प्रकारों का गहरा असर होता है। समाज ने जिस तरह से सबसे गंदे कामों को करने के लिए दलित स्त्री को अभिशप्त किया है वे जगहें समाज की सबसे गंदी और कचरा युक्त होती है। यहाँ पर साफ-सफाई की बात तो दूर, पीने के साफ पानी तक की व्यवस्था नहीं होती है। एक छोटी-सी चोट आने पर भी कोई स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही स्थिति न सिर्फ बड़े शहरों और मध्यम कस्बों की है बल्कि गाँवों में भी देखी जा सकती है। गाँवों की सामाजिक-भौगोलिक संरचनाएँ ब्राह्मणवादी होने के कारण पूरे भारत में दलितों को गाँव से बाहर की अनुपजाऊ, गंदी और प्राकृतिक आपदाओं से असुरक्षित जमीनों पर रहना होता है। वे अपने श्रम से इन जमीनों को रहने लायक बनाते हैं तो उच्च जातियों के लोगों द्वारा अपने बाहुबल से इन्हें यहाँ से विस्थापित कर दिया जाता है। यही स्थिति बड़े शहरों में देखी जा सकती है। चूँकि दलित पितृसत्ता के जकड़नें मजबूत होने के कारण कार्यस्थलों पर दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए राज्य की संस्थाओं का सहयोग होना तो दूर उनके अपने पुरुष जो पति, पिता, भाई और बेटे के रूप में होते हैं वे भी पूर्ण उदासीन और गैरजिम्मेदार होते हैं। उसे तीन स्तर पर स्वास्थ्य की विपरीत परिस्थियों से जूझना पड़ता है, पहली स्थिति परिवार की आंतरिक स्थिति है जहाँ पर दलित स्त्री पितृसत्ता के स्त्री के लिए निर्मित किये गए बंधनों में कैद रहती है। दूसरी स्थिति समुदाय की है जहाँ पर वह श्रम करने जाती है वहाँ की पूरी व्यवस्था जाति व्यवस्था आधारित होने के कारण वह किसी प्रकार के स्वास्थ्य अधिकार का दावा कर ही नहीं सकती और तीसरी स्थिति एक लोकतांत्रिक राज्य द्वारा उपलब्ध कराई गई स्वास्थ्य सेवाओं की हैं जहाँ पर इन दोनों स्थितियों की बुराइयाँ तो उपस्थित हैं ही, साथ ही पूँजीवादी के तमाम अमानवीयतायें और असमानतापूर्ण व्यवहार भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी एक रिपोर्ट में यह मान लिया है कि स्त्रियों पर होने वाला भेदभाव केवल लैंगिक ही नहीं है, जातिय और आर्थिक स्थिति पर भी आधारित है। चूँकि भारत के समाज में आर्थिक स्थितियों के ढ़ांचों की निर्भरताएँ जाति व्यवस्था पर होती हैं और संसाधनों का बँटवारा इस प्रकार से किया जाता है कि उच्च जातियों के पास अधिकतम संसाधनों का केंद्रीकरण हो जाता है और निम्न जातियाँ सभी संसाधनों से वंचित हो जाती हैं। उनके पास केवल श्रम बचती है। वह श्रम दलित स्त्री और पुरुष के पास समान रूप से होता है लेकिन वहाँ पर भी दलित पुरुष की सोच को इस तरह से निर्मित किया जाता है कि स्त्री के श्रम का महत्व कम है और इस सोच को निर्मित होने के बाद उच्च वर्णों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं के समय वह दलित स्त्री के स्वामी होने के गर्व भाव को महसूस करता है और जब भी अवसर मिलता वैसा ही व्यवहार वह अपनी स्त्री से करता है। एक तरह से कहा जा सकता है कि अपनी चेतना के स्तर दलित पुरुष उत्पीड़िन की व्यवस्था का एक पुर्जा बन जाता है।

‘टर्निंग प्रामिसेस इन टू एक्षन-जेंडर इक्वालिटी इन द 2030’ एजेंडा नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार एक सवर्ण महिला की तुलना में एक दलित महिला करीब 14.6 साल कम जीती है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज के 2013 के एक शोध का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जहाँ एक ऊँची जाति की महिला की औसत उम्र 54.1 साल है, वहीं पर एक दलित महिला औसतन 39.5 साल ही जीती है।’4 इससे सिर्फ यही स्पष्ट नहीं होता कि दलित स्त्री को पोषण न मिल पाने के कारण वे सवर्ण स्त्री की तुलना में कम उम्र प्राप्त करती है बल्कि यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सवर्ण स्त्री की स्थिति भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। इस कम उम्र के भेद के अलग कारणों को रेखांकित करने पर कुछ साझे बिंदु प्रस्तुत हो सकते हैं जो सामाजिक पायदानों पर दोनों वर्णों की स्त्रियों को झेलने पड़ते हैं और वे कारण जो जाति के कारण सिर्फ दलित स्त्री को झेलने पड़ते हैं, स्पष्ट हो जाते हैं।

दलित स्त्री भारत की कुल स्त्री आबादी की 16.4प्रतिशत है।5   इसकी औसत आयु कम होने के लिये जिम्मेदार कारकों को देखा जाये तो प्राथमिक कारक तो एक दलित मजदूर को मिलने वाले श्रम का न्यूनतम मूल्य है और उसमें भी स्त्री के श्रम का मूल्य ओर कम होना होता है। घर में पुरुष का आधिपत्य होने के कारण उसकी कमाई को खर्च करने का अधिकार भी वह स्वयं प्राप्त नहीं कर पाती है। घर खर्च, बच्चों की पढ़ाई से लेकर तमाम तरह के कर्ज के चुकाये जाने वाले ब्याज की रकम भी इन्हीं की आमदनी से जाती है। इनका अपना स्वास्थ्य सबसे अंतिम प्राथमिकताओं में होता है जो पूर्ण होने से पहले ही बिमारियाँ बहुत विकराल रूप ले लेती हैं। यहाँ पर वे स्वयं पितृसत्ता के विभिन्न रूपों में इस तरह से सहायक बनती हैं कि अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल देती हैं।

अशिक्षा एक बहुत बड़ा कारक है जो दलित स्त्रियों के कमजोर स्वास्थ्य की दिशा निर्धारित कर देती है। इसी के कारण से वह बाल विवाह जैसी कुरीतियाँ की शिकार हो जाती हैं जो आगे चलकर उन्हें कम उम्र में माँ बनने जैसे खतरों तक पहुँचा देती है। कम उम्र में माँ बनने की स्थिति शहरों की तुलना में ग्रामीण परिवेश में अधिक होती है।

सार्वजनकि स्वास्थ्य सुविधाओं और जागरुकता के अभाव में बहुत-सी दलित स्त्रियाँ अंधविश्वासों का शिकार होकर अपने जीवन से हाथ धो बैठती हैं। वे अत्याचारों के प्रतिकार करने की चेतना प्राप्त करने के अवसर तक ही नहीं पहुँच पाती हैं। ग्रामीण इलाकों में वे जाति के कारण जमीन जैसी परिसंपत्तियों से वंचित होती हैं और किसी जमींदार के खेत पर खेत मजदूरी करने को अभिशप्त होती हैं। दलित बालिकों को बाल श्रम भी करना पड़ता है जिससे वे बचपन से ही कुपोषण की शिकार हो जाती हैं और कार्य स्थलों पर यौन हिंसा की शिकार भी होती हैं। सुबह जल्दी घर का काम पूर्ण करके श्रम बाजार समय पर पहुँचने और शाम को काम से लौटने के पश्चात फिर से घर का काम देर रात तक पूर्ण करने की मजूबरी दलित स्त्री को अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने का समय ही नहीं देती।

देखा जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का नवउदारवादी नितियों के बाद जिस तरह से निजीकरण हुआ है उसका प्रभाव सभी वर्गों की स्त्रियों पर पड़ा लेकिन हाशिये के समाजों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच ही चुनौतीपूर्ण हो गई है। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे, इंडिया के अनुसार भारत की अधिकांश स्त्रियाँ खून की कमी का शिकार हैं और उनमें भी दलित स्त्रियों का प्रतिशत अधिक है। 25 से 49 आयु वर्ग की 55.9 प्रतिशत दलित स्त्रियाँ खून की कमी से ग्रस्त हैं। दलित स्त्रियाँ स्वास्थ्य के समक्ष दोहरे संकटों से गुजरती हैं, पहला तो यह कि उन्हें आर्थिक तंगी के कारण पौषटिक आधार उपलब्ध नहीं हो पाता है और दूसरा स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी उसे झेलना पड़ता है।

जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं वे भी भेदभाव रहित नहीं हैं, वहाँ पर भी जाति आधारित भेदभाव अपने पूरी मजबूती के साथ उपस्थित है। अस्पतालों में दलित स्त्रियों पहुँचने के बाद किया जाने वाला व्यवहार भी इतना भेदभरा होता है कि उपचार से पहले ही उनका इस तंत्र से विश्वास उठ जाता है और उनमें से कई स्त्रियाँ पाखंडों की तरफ जाने को मजबूर हो जाती हैं। जो अपने ईलाज के लिए निजी अस्पतालों में जाती हैं वहाँ की उच्च फीस के कारण वे बीमारी भूलकर ईलाज के लिए होने वाले कर्ज की चिंताओं से ग्रसित हो जाती हैं। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे, इंडिया के अनुसार दलित समुदाय की 70.4प्रतिशत स्त्रियों को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच स्थापित करने में ही परेषानियों का सामना करना पड़ता है। 15 से 49 आयु वर्ग की उच्च वर्ग की स्त्रियों की तुलना में दलित वर्ग की केवल एक स्त्री को पौषटिक खान-पान उपलब्ध हो पाता है। ऐसा इसलिए होता है कि देश में रोजगार के साधनों के निजीकरण होने का सर्वाधिक प्रभाव दलित स्त्रियों पर पड़ा क्योंकि एक तरफ उनके कामों का मशीनीकरण कर दिया गया तो दूसरी तरफ नस्लीय सौन्दर्य प्रतिमानों के आधारों पर उसे सभी कामों से दूर कर दिया। ये निजी कारखाने अस्पृष्यता के नए अड्डे बनकर उभरे और श्रम के सौन्दर्य का हाशियाकरण कर दिया।

दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य में आने वाले अवरोधों में रूढ़ीवादी धारणाएं और परम्पराएं भी प्रमुख हैं। इन परम्पराओं का विस्तार गाँव से लेकर शहरों तक में देखा जा सकता है। आज भी भारतीय समाज अंधविश्वास और घोर पाखंडों से घिरा हुआ है जहाँ पर पोषण के अभाव और अन्य बीमारियों को दैवीय प्रकोप माना जाता है। इन दैवीय प्रकोपों को दूर करने के लिए अनेक तरह के आर्थिक और शारीरिक शोषण के केंद्र पूरे देश में पाये जाते हैं। शिक्षा, चेतना और तर्क के अभाव में इन केंद्रों की मान्यताओं में किसी प्रकार की कमी नहीं दिखाई देती है। बहुत से लोग वैज्ञानिक उपचार के साथ-साथ इन परम्परागत रुढ़ीवादी तरीकों को भी अपनाते हैं और स्वास्थ्य बेहतर होने की स्थिति में हमेशा ही इन परम्परागत पाखण्डों को उसका श्रेय दिया जाता है। दरअसल, समाज अपनी मजबूरियों और डर की वजह से वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है चाहे वह चिकित्सा हो या फिर जीवन के अन्य आयाम, उसकी सामूहिक चेतना का वैज्ञानिकरण होना अभी शेष है और इसी कारण से समाज अधिकांश कार्यों के एक अंतद्वन्द की स्थिति में रहता है। यह अंतद्वन्द परम्पराओं को त्यागकर आधुनिकता की देहरी पर आने की इच्छाओं के होने की बजाय ऐसे ज्यादा होते हैं कि कैसे आधुनिकता के उपकरणों का पूरा उपभोग करते हुए चेतना को परम्परागत दृष्टिकोण से संबद्ध कर पायें।

स्वास्थ्य सुविधाओं को समाज की प्राथमिक ढ़ाँचागत विकास से अलग करके नहीं देखा जा सकता है क्योंकि देश के सुदूर गाँवों से कस्बों के स्वास्थ्य केंद्रों तक जाना अपने आप में मुश्किल काम है और अगर कोई दलित स्त्री तमाम मुश्किलों को झेलते हुए वहाँ तक पहुँच भी जाए तो उसका ईलाज सुनिश्चित नहीं है। वहाँ ना तो पर्याप्त उपकरण होते हैं और ना ही अन्य सुविधाएं।

संविधान में स्वास्थ्य राज्य अनुसूची का विषय है लेकिन केंद्र की भूमिका मार्गदर्शक के रूप में हमेशा रहती है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को नए रूप में सामने लाकर उसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का नाम दिया जाता है। इस मॉडल के तहत जमीन और भवन से लेकर तमाम सरकारी सुविधाओं से बने स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों को प्रबंधन के नाम पर निजी कम्पनियों को उपलब्ध कराया जाता है जो जनता से सेवाओं के बदले में फीस प्राप्त करते हैं। जब सारे संसाधन सरकार के पास उपलब्ध हैं तो उसका बेहतर उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए किया जाना चाहिए। वैसे तो स्वास्थ्य के स्तर पर गुणवत्तापूर्ण सेवाओं का अभाव पूरे विश्व में है लेकिन विकसित देशों में स्वास्थ्य पर अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता है जिससे वहाँ के स्वास्थ्य सूचकांक में बढ़ोतरी हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार विश्व में एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना आवश्यक है और भारत में सत्रह सौ लोग पर एक डॉक्टर उपलब्ध है और यही स्थिति सन् 2016 में प्रति व्यक्ति की लिए तय साढ़े तीन बैडों की है कि यहाँ पर केवल 1.3 प्रति व्यक्ति बिस्तर उपलब्ध हैं।

भारत के स्वास्थ्य के सांस्कृतिक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को देखना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आधुनिकता की देहरी पर आकर भी यहाँ के लोगों की चेतना में स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह की सजगता नहीं है क्योंकि वे जीवन के भौतिक अस्तित्व की बजाय उसके परलौकिक अस्तित्व को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं और मनुष्य के बेहतर भविष्य की परिकल्पना निर्धारण में पुनर्जन्म और नियतिवाद का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिए यहाँ के लोगों में श्रम प्रधान जीवन होने के बावजूद भी स्वास्थ्य को प्राकृतिक उपचारों से भी नहीं जोड़ा गया। इसकी संलग्नता दिखाई देती है ब्राह्मणवादी आर्थिक संरचना में जहाँ पर किसी भी प्रकार के अस्वास्थ्य के उपचार को एक निश्चित फीस जिसे ‘दक्षिणा’ कहा जाता है उसे देकर प्राप्त किया जा सकता है। जब भी समाज में स्वास्थ्य पर चर्चा होती तो उसका सांस्कृतिक पक्ष अंत में ब्राह्मणवाद के पोषक की भूमिका निभाता। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि लोग राज्य से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की माँग करने और चुनावी राजनीति में स्वास्थ्य एक जन अधिकार के रूप में सामने आने से वंचित हो गया, पूरे चक्र में कुछ लोग ब्राह्मणवादी संस्कृति की पोषक और लाभकारी पक्षों की भूमिका में उपस्थित थे तो कुछ उसकी पूर्ती के पक्षधर छोटे घटकों के रूप में थे। दलित स्त्री के जीवन में इसका विपरीत प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि वह ब्राह्मणवादी संस्कृति के पोषक तत्वों में होने की बजाय उसके शोषितों में से थी और वह किसी भी प्रकार से उसके छोटे पक्षधर घटकों में भी नहीं थी।

दलित स्त्री की सांस्कृतिक अवस्थिति ही ऐसी है कि वह सभी परम्परावादी जकड़नों की अंतिम भुक्ता होती है। यही स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं की हुई क्योंकि जब दलित पितृसत्ता के सभी अत्याचारों और अवसादों से उत्पन्न स्थिति की पीड़ायें झेलती है। विवाह संस्था जिस तरह से भारतीय समाज में जकड़नों से युक्त है वह स्त्री के स्वास्थ्य के भविष्य को निर्धारित कर देती है। बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि सामाजिक अभिशापों के कारण देश में स्वस्थ गर्भवती प्रतिशत बहुत कम पाया जाता है। स्त्री का स्वास्थ समय के दो बिंदुओं पर आकर निर्धारित होता है और पितृसत्ता में वह हमेशा उसके मानवीय अधिकारों के विपरीत ही जाता है। इस व्यवस्था में पहला बिंदु स्त्री का पैदा होना है जहाँ पर पिता के घर में उसको प्राप्त होने वाले भोजन, खेलकूद और विकास के अन्य अवसर सामाजिक स्तरीकरण में सबसे नीचे के पायदान पर चले जाते हैं। घर में उसे सबसे बाद और बचा हुआ खाना दिया जाता है। बीमारी की स्थिति में भी लड़कों को तो अस्पताल में ले जाया जाता है और लड़कियों को झाड़-फूक के हवाले करके उनके जीवन के प्रति लापरवाही बरती जाती है।

दूसरा बिंदु आता है स्त्री की शादी का जिसमें उसकी किसी प्रकार की सहमति लिए बिना उसे अपरीचित लोगों के बीच भेज दिया जाता है जहाँ निर्णय लेने में उसकी भागीदारी तो दूर की बात है, उसकी परेशानियों को ठीक से सुनने वाला भी कोई नहीं होता। उसे देह के उपभोग और बच्चा पैदा करने वाली मशीषीन के रूप में देखा जाता है। इसी व्यवस्था का परिणाम है, ‘‘42.2प्रतिशत भारतीय महिलाएं गर्भावस्था की शुरुआत में कम वज़न की होती हैं। इसका मतलब है कि उनका भार सूचकांक 18.5 से कम रहता है जो, जीर्ण ऊर्जा की कमी के लिए, खाद्य व कृषि संगठन द्वारा बताई गई न्यूनतम सीमा है। कम वज़न वाली गर्भवती महिलाओं में यह दर दुनिया के गरीब और कम विकसित क्षेत्रों की तुलना में भी बहुत ज्यादा है, सब-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों में गर्भावस्था की शुरुआत में केवल 16प्रतिशत महिलाएँ ही कम वज़न की होती हैं।’’ भारत की स्त्रियाँ जब गर्भावस्था में ही कम वज़न की होती है तो गर्भ के बाद तो निश्चित रूप से उनके पोषण पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है वे जल्दी ही कैल्षियम की कमी की षिकार हो जाती हैं जिसके कारण इन्हें हड्डियों और दाँतों के बहुत रोगों का सामना करना होता है।

चूँकी दलित स्त्रियाँ अधिकांश खेत मजूदरी जैसे असंगठित क्षेत्र के कामों में लगी होती हैं जहाँ पर किसी प्रकार की प्रसुति सुविधाओं के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। वे बच्चा पैदा होने के कुछ समय बाद ही काम पर जाने को मजबूर हो जाती हैं जहाँ पर भारी मेहनत और पोषण के अभाव में वे कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं। घर में मिलने वाले पोषण की स्थिति भी उसकी द्वारा पैदा किये गए बच्चे के जेंडर पर निर्भर करती है अगर लड़का होता है तो कुछ पोषण युक्त भोजन मिलने की संभावनाएँ हो जाती हैं क्योंकि दलित पितृसत्ता को अपना वंश चलाने के लिए लड़के की आवश्यकता होती है। जबकि लड़की होने पर जच्चा और बच्ची दोनों के प्रति एक रूखापन पैदा हो जाता है। इसे ‘अशुभ’ मानकर परिवार के लिए हानिकारक माना जाता है क्योंकि लड़की के विवाह में दहेज देना होता है जबकि लड़के के विवाह में दहेज प्राप्त होता है। यह स्थिति भारत में आम है जो सवर्ण परिवारों में भी पाई जाती है क्योंकि वहाँ पर भी पितृसत्ता उसी तरह से सभी कार्य-व्यवहारों को नियंत्रित करती है। लेकिन दलित स्त्रियों और सवर्ण स्त्रियों के गर्भावस्था और बच्चा पैदा होने के बाद की स्थितियों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि दलित स्त्रियों को गरीबी के कारण काम पर जाने की मजबूरी में जीना पड़ता है जहाँ पर सामान्यतः गाँवों में जमींदार और शहरों में ठेकेदार उनसे कठोर परिश्रम करवाते हैं। वहाँ किसी तरह की सुविधाओं का होना तो दूर कुछ समय के लिए छाया में सुस्ता भी लिया जाता है जो जमींदार और ठेकेदार के प्रतिनिधियों की डाँट पड़ती है और दिहाड़ी काट लेने का संकट हरपल की मानसिक परेषानी बनकर उपस्थित रहता है। अपने नवजात शिशु के प्रति लगाव से वे इतनी जुड़ी हुई होती हैं कि काम करते हुए भी हरपल उस पर ध्यान रहता है। जबकि सवर्ण स्त्रियों को एक तो घर से बाहर काम करने नहीं जाना पड़ता है जिससे वे उस कठिन मेहनत से बच जाती हैं। दूसरा उस पूरी मानसिक प्रताड़ना का शिकार भी नहीं होती हैं। फिर भी उन्हें पितृसत्ता के द्वारा पैदा किये गए सभी उत्पीड़नों को सहन करना पड़ता है। उन्हें बाहर तो मजदूरी नहीं करनी होती लेकिन एक घरेलू कामगार के रूप में अपने ही घर का सारा काम करना होता है जिससे उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है।

दलित स्त्री को प्रसव काल के दौरान मजदूरी और घर का कार्य दोनों ही करने होते हैं तो उसको थकान अधिक होती है और अधिक ऊर्जा और पौषटिक आहार की आवश्यकता होती है जो उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। एक तो पहले से ही आर्थिक स्थिति इतनी खराब होती है और फिर शिशु के पैदा होने के बाद निभाई जाने वाली विभिन्न रस्मों और उनमें दिये जाने वाले उपहारों का इतना अधिक आर्थिक दबाव होता है जो केवल स्त्री को ही सहन करना पड़ता है। पुरुष को इसके बारे में बताने पर वह कह देगा कि इनकी कोई आवश्यकता नहीं है और फिर वह ही यह भी कह देगा कि मेरे रिश्तेदारों को उचित उपहार न देकर मेरा अपमान किया है। यह एक तरह से मानसिक उत्पीड़न का दौर भी होता है। उपहारों से किसी को भी खुष नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उपहार अपने मन से देने वाले उपहार न होकर एक सामाजिक दबाव होते हैं जो हर परिस्थिति में दिया जाना आवश्यक है। अभी जिस तरह से आधुनिक बाजार का विस्तार हुआ है उसमें यह उपहार रूपी सामाजिक उत्पीड़न ने अधिक व्यवस्थित और एकरूपता का स्परूप धारण कर लिया है। इन्हें राजस्थान की स्थानीय भाषा में ‘लाग’ कहा जाता है यही उसी प्रकार से है जैसे राजाशाही व्यवस्था के दौरान राज परिवार हर उत्सव और विलासिता के लिए जनता से वसूल की जाती थी। इनमें अन्तर सिर्फ इतना है कि सामाजिक व्यवस्था के तौर पर स्थापित है और वह अधिकांश रूप से स्त्रियों को ही निभानी होती है। इस ‘लाग’ का एक बड़ा पक्ष पुराहितवाद को समर्पित हो जाता है, कुछ हिस्सा परिवार के मुखियाओं को मिलता है और कुछ हिस्सा स्त्रियों को मिलता है। पहले दोनों पक्षों को मिलने वाला हिस्सा अधिकांश अर्थ के स्वरूप में होता है। स्त्रियों को दिया जाने वाला भाग उन सौन्दर्यपरक आयामों को पूरा करने वाला होता है जो पितृसत्ता द्वारा निर्मित किये जाते हैं। अर्थात पूरी ‘लाग’ का स्वरूप ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अनुकूल होता है। यहाँ पर ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है’ जैसे मुहावरे भी कई स्त्रीवादियों द्वारा सुने जा सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यहाँ पर स्त्री और पुरुष की बजाय वह मानसिकता अधिक महत्वपूर्ण हो प्रभावी होती है जिससे वे संचालित होते हैं। स्त्रियाँ भी उसी मानसिकता के तहत ऐसा व्यवहार करती हैं। देखा जाये तो पुरुष को इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बहुत अवसर और लाभ मिले हैं लेकिन उसका मन और विवेक भी तो समानता और बराबरी के उन्मुक्त समाज में अपने मानवीय विकास को उच्चतम स्तर तक ले जाने को करता ही है। वह अपनी प्रकृति से तो प्रेम, शांति और बराबरी में जीना चाहता है, यह व्यवस्था ही उसे इस सुनहरे भविष्य की तरफ जाने से रोकती है।

नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के अनुसार आज देश में 70.4प्रतिशत दलित स्त्रियों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच ही नहीं बन पा रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के साथ उन्हें स्वास्थ्य के लिए बाहर जाने की अनुमति नहीं होना भी इसका एक कारण हैं।

इन सभी कारणों के उपस्थित होने और पूरी तरह से लोगों के जीवन को प्रभावित और नियंत्रित करने के उपरांत राज्य की भूमिका का विश्लेषणआवश्यक है। राज्य ने किन तरीकों से अंधविश्वासों को समाप्त करने की कोशिश की है, बेहतर स्वास्थ्य के लिए दलित स्त्रियों के लिए बजट में क्या प्रावधान किये गये हैं, उनका क्रियांवन कितना हुआ है आदि ऐसे प्रमुख प्रष्न हैं जो वर्तमान संकटों को स्पष्ट करने के साथ भविष्य की एक रूपरेखा भी सामने रखते हैं। यह जिम्मेदारियाँ राज्य की इसलिए हो जाती हैं कि संविधान का लक्ष्य ही एक समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना करना है और संविधान के अनुच्छेद 46 में यह स्पष्ट किया गया है कि कमजोर वर्गों की शिक्षा और आर्थिक हितों का विशेष ध्यान रखकर उन्हें प्रोत्साहित करेगा। खासकर अनुसूचित जाति और जनजाति का, उन्हें सभी प्रकार के शोषण से बचायेगा और सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करेगा। इस का पूरी तरफ से प्राप्त् न कर पाने के विभिन्न कारणों में एक कारण यह भी है कि भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका समाज में जाति की भूमिका की तरह की प्रभावित रही। राजनीति समाज से आगे चलकर उसे परिवर्तन के लिए प्रेरित करने में असफल रही। जहाँ आवश्यकता हुई वहाँ पर जाति का अपने पक्ष में उपयोग कर लिया और अन्य जगहों पर स्वयं को जातिवाद से मुक्त घोषित किया। भारतीय राजनीति में यह ‘सहूलियत की समझदारी’ का जो प्रतिमान विकसित हुआ उसका इतना अधिक विकेंद्रीकरण हुआ कि हर सार्वजनिक सवालों पर जाति का अपनी सहूलियत के अनुसार उपयोग होने लगा।

सन् 2017-18 के केंद्रीय बजट में दलित आदिवासी महिलाओं के लिए कुल रुपये 2,322 करोड़ रुपये आवंटित किये गए जो कुल बजट का यह लैंगिक बजट सिर्फ 0.11प्रतिशत है।7   दलित स्त्रियों के लिए इतनी कम मात्रा में बजट के आवंटन में सारी सुविधाएँ शामिल होती हैं जो उनके शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं पर विशेष ध्यान देकर समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास होता है। ऐसी स्थिति में उनके स्वास्थ्य के स्तर के ग्राफ को बहुत अधिक उठाये जाने की संभावनाएँ नहीं बनती हैं। बहुत से दलित कार्यकताओं की माँग है कि संख्या के आधार पर बजट का आवंटन होना चाहिए जो जितनी संख्या में है उसे उतना ही बजट दिया जाये। मेरा मानना है कि उत्पीड़ित तबकों को उनकी संख्या से दोगुना अधिक बजट का प्रावधान कम से कम होना चाहिए और स्वास्थ्य जैसे जीवन के प्रमुख सवालों पर तो इसमें कोई समझौता नहीं होना चाहिए। दोगुना इसलिए हो कि एक तो वर्तमान में उनके स्वास्थ्य तक पहुँच और विश्वास स्थापित करने में ही खर्च हो जायेगा और दूसरा भाग उन्हें उन्नत स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में लगाना होगा। समाज को अंधविश्वास से मुक्ति दिलाकर उन्हें वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की तरफ ले जाने के प्रति राज्य के कोई विशेष प्रयास नहीं दिखाई देते हैं। ऐसे योजनाओं का भी पूर्ण अभाव है जो दलित स्त्री के कार्यस्थलों पर स्वास्थ्य के मानकों को निर्धारित और नियंत्रित करे क्योंकि वह कार्यस्थल पर शक्ति संरचना में घर से भी कमजोर हो जाती है और किसी प्रकार की सुविधाओं की माँग करने की बात तो दूर अपनी असहजता को भी व्यक्त नहीं कर पाती है। दलित स्त्रियों के कार्यस्थल उनके लिए भययुक्त और असुरक्षित होते हैं। वहाँ पर उस असंगठित क्षेत्र के बारे में श्रम कानूनों बनाकर राज्य को श्रमिकों के हितों को सुरक्षित रखना चाहिए। सामान्यतः होता ऐसा है कि असंगठित क्षेत्र में जमींदार और ठेकेदार की कोई जवाबदेहिता नहीं होती श्रमिक के प्रति और यह इसलिए नहीं होती के वे किसी कानून की परीधि में नहीं आते हैं।

यह राज्य के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती है कि भारत की जनसंख्या जिन विभिन्न भौगोलिक इलाकों के स्थिति हैं वहाँ के अपने कुछ प्राकृतिक संकट हैं। इन विविध संकटों के अनुरूप योजनाएँ बने और यह सुनिश्चित हो कि अगर मरीज स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बनाने में संकट या चुनौती महसूस कर रहा है तो स्वास्थ्य सेवाएँ उनके घर तक पहुंचाई जाएँ। दलित स्त्रियों के बीच प्रचलित अंधविश्वास और अन्य परम्परागत धारणा को शिक्षा के माध्यम से तो तोड़ा जाए ही साथ ही, उन्हें एकविश्वास दिलाया जाए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली किसी भी निजी स्वास्थ्य प्रणाली से कमजोर नहीं है। वहाँ पर अधिक योग्य चिकित्सक, मशीनें और दवाइयाँ उपलब्ध हैं और सरकार यह सब किसी विशेष लाभ के लिए ना करके अपने जिम्मेदारी निभाने के लिए कर रही है। उन्हें सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा स्थलों पर सहजता अनुभव हो जो सभी असमानतापूर्ण व्यवहार को समाप्त करके भी स्थापित की जा सकती हैं। उन्हें ऐसा लगना चाहिए कि इन स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार होता है और यहाँ पर समाज में प्रचलित अन्यायकारी धारणाएँ उपस्थित नहीं हैं।
राज्य को आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए संचालित होने वाली योजनाओं में दलित स्त्रियों पर विशेष ध्यान देना होगा। स्वास्थ्य स्थलों पर पहुँचने के बाद सबसे बड़ी चुनौती आती है कि जिस तरह की दवाइयाँ सुझाई जाती हैं वह सरकारी अस्पताल में उपलब्ध ही नहीं होती हैं। बाहर निजी दुकानों पर उनकी कीमतें इतनी अधिक होती हैं कि एक दवा लेने के बाद मरीज दोबारा अस्पताल की तरफ आता ही नहीं है। एक तो दलित स्त्रियाँ जब भी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए स्वास्थ्य केंद्रों पर जाती हैं तो उन्हें काम से छुट्टी लेनी होती है जिसके कारण दिहाड़ी का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं जब दवाइयाँ भी निजी दुकानों से खरीदनी पड़ती हैं तो वे इस आर्थिक भार को सहन नहीं कर पाती हैं। इसलिए राज्य को स्वास्थ्य के निजीकरण को रोककर उसे पूरी तरह निशुल्क, पारदर्शी और सहज उपलब्धता स्थापित करनी होगी।

भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक चुनौती चिकित्सकों का अभाव भी है और उसका कारण यह है कि सरकारी सेवाओं को चिकित्सकों को उचित वेतनमान और सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण वे निजी क्षेत्र में चले जाते हैं। यह एक बहुत व्यापक प्रवृति के रूप में स्थापित हो चुका है। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए आवश्यक है कि चिकित्सकों के वेतनमानों को बढ़ाया जाए और उन्हें ऐसी सुविधाएँ दी जाएँ कि वे सरकारी क्षेत्र में अपनी सेवाओं को अधिक प्रतिबद्धता और मन से प्रदान कर पायें। साथ ही, चिकित्सा के अध्ययन के लिए सरकारी मेडिकल कोलेजों की संख्या बढ़ाने और उनकी गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है।

दलित स्त्री के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए राज्य को अपनी संस्थाओं को मजबूत और कार्यकारी बनाना होगा और निजीकरण को रोकना होगा। साथ ही, जाति उन्मूलन के लिए प्रयासों की आवश्यकता है जहाँ पर लोगों की चेतना का विस्तार होकर वे विवेकवान बन सकें। नीति निर्माण के दौरान स्वास्थ्य की नीतियों में दलित स्त्रियों की भागीदारी और उनके कार्यस्थलों पर सुविधाओं की सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

 
संदीप कुमार मील, शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर. सम्पर्क: 9636036561

 सन्दर्भ : 
1. http://www.who.int/about-us
2. http://worldpopulationreview.com/countries/median-age/
3. काँचा इल्लैया, हिन्दुत्वमुक्त भारत: दलित-बहुजन-सामाजिक-आध्यात्मिक और वैज्ञानिक क्रांति, सेज पब्लिकेशन इंडिया प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली,      2017, पृ.4।
4. http://thewirehindi.com/34320/average-dalit-women-die-younger-than-       higher-caste-women-says-un-report/
5.http://www.rightlivelihoodaward.org/fileadmin/Files/PDF/Literature_Recipients/Manorama/Background_Manorama.pdf
6. डियाने काफ़े, सामाजिक पदक्रम में हैसियत, गर्भवती महिलाओं का स्वास्थ्य और देश का विकास, सेंटर फॉर दि एडवांस स्टडी ऑफ़ इंडिया (पेनिसिलिया विश्वविद्यालय का एक चैप्टर)
7. दलित-आदिवासी बजट विश्लेषण 2017-18, राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान-दलित आर्थिक अधिकार आंदोलन

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