बीजेपी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयोगशाला बने इलाके और खासकर लोकसभा क्षेत्र में बेगम तबस्सुम हसन ने अपनी जीत दर्ज कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मात दे दिया. बेगम तबस्सुम हसन की जीत को जाट-मुस्लिम के बीच नये सिरे से सामाजिक ताने-बाने के तौर पर देखा जा रहा है. बेगम तबस्सुम हसन गुर्जर समुदाय (मुस्लिम) से आती हैं, जिनका हिन्दू गुर्जर समुदाय के साथ एक सामाजिक आधार भी है. हाई स्कूल तक शिक्षित तबस्सुम हसन 2009 में कैराना सीट से समाजवादी पार्टी की सांसद रह चुकी हैं. उनके पति मुनव्वर हसन 1996 में यहां से सांसद थे और बाद में 2004 में वे बहुजन समाज पार्टी से मुजफ्फरनगर के सांसद बने.
तबस्सुम के ससुर अख्तर हसन 1984 में कैराना से कांग्रेस के सांसद थे. तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी-लहर के बावजूद कैराना विधानसभा से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा पहुंचे. हालांकि 2014 में नाहिद हसन बीजेपी के दिवंगत सांसद हुकुम सिंह से चुनाव हार गये थे, जिनकी बेटी मृगांक सिंह को उपचुनाव में बेगम तबस्सुम हसन ने हराया. अपनी जीत के प्रति शुरू से आश्वस्त तबस्सुम ने कहा था कि ‘ ईवीएम वाली समस्या के कारण मेरी जीत का अंतर कम भले ही हो, लेकिन जीतेंगे जरूर.’ जीतने के बाद तबस्सुम ने कहा है, ‘यह सच की जीत है. जो कुछ भी कहा है उसके साथ मैं आज भी हूं, एक साजिश रची गई थी. मैं कभी नहीं चाहूंगी कि भविष्य के चुनाव ईवीएम से न हों. संयुक्त विपक्ष का रास्ता अब बिलकुल साफ है.’
यह सीट कई कारणों से बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गयी थी. यहाँ से कथित हिन्दू पलायन का सन्देश देने की कोशिश बीजेपी और संघ परिवार ने की थी. तबस्सुम की जीत इस कोशिश के खिलाफ एक सन्देश की तरह लिया जायेगा. बीजेपी ने राज्य के अपने कई मंत्रियों, सांसदों और केन्द्रीय नेताओं को लोकसभा क्षेत्र में पिछले कई दिनों से सक्रिय कर दिया था ताकि यह सीट वह जीत सके. खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार बंद होने के बाद वोटिंग के एक दिन पहले कैराना के पड़ोसी जिले बागपत में रोड-शो किया और गन्ना किसानों के लिए घोषणाएं की.
5 लाख मुस्लिम, तीन लाख हिन्दू और ढाई लाख दलित मतदाताओं वाले इस क्षेत्र में पारम्परिक मुस्लिम राजनीतिक परिवार की जीत के कई मायने हैं. राजनीति के विशेषज्ञ इसे हाल की भारतीय राजनीति में एक शिफ्ट के तौर पर देख रहे हैं.
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