हिंदी साहित्य में आदिवासी स्त्री का सवाल

अ‍जय कुमार यादव

पीएच.डी. हिंदी (शोधरत )
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय
दिल्ली
संपर्कःajjujnu@gmail.com

जब आदिवासी समाज में स्त्रियों की बात होती है तो ऐसा माना जाता है कि आदिवासी स्त्रियाँ अन्य समाज की तुलना में अधिक स्वतंत्र होती हैं लेकिन बिटिया मुर्मू ने लिखा है कि- “भारत की संस्कृति में महिलाओं की जो स्थिति है, आदिवासी संस्कृति में महिलाओं की स्थिति उससे बहुत भिन्न नहीं है। आम धारणा है कि आदिवासी महिलाएँ अधिकार संपन्न तथा बराबर की हकदार हैं, किन्तु ऐसी बात नहीं है।”1 अर्थात् वस्तु स्थिति कुछ और ही है। दरअसल आदिवासी समाज सामूहिकता और समानता में विश्वास रखता है। अंग्रेजों  के आगमन से पूर्व आदिवासी समाज में स्त्रियाँ सभ्य और सुसंस्कृत कहे जाने वाले समाज से ज्यादा स्वतंत्र होती थीं । लेकिन अंग्रेजों के आने के पश्चात् धीरे-धीरे उस सामूहिकता का टूटन हुआ। उस सामूहिकता के टूटन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था मजबूत हुई। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को और भी मजबूत करने का वैधानीकरण अंग्रेजों  ने राजस्व की नीति लागू कर के कर दिया। अंग्रेजों के पहले आदिवासी समाज में सम्पत्ति नाम की कोई अवधारणा नहीं थी। लेकिन “कालान्तर में जब अंग्रेजों  ने राजस्व की नई नीति बनाई और जमीन के पट्टे जमींदारों के नाम लिखे, समस्या तब पैदा हुई। अब चूँकि जमीन पुरुषों के नाम से लिखी गई,  तो उसमें किसी भी आदिवासी मुखिया या मांझी-हाड़ाम या प्रधान ने औरतों के नाम खाते में यह कहकर नहीं चढ़ने दिए कि ये तो दूसरे के घर चली जाएगी।”2 पितृसत्तात्मक व्यवस्था के ठेकेदारों ने अपने इस तर्क को मजबूत बनाने के लिए इसका मिथकीकरण किया और अब संताल आदिवासी समाज की मान्यता है कि “उनके पूर्वजों की प्रेतात्माओं को अपने उत्तराधिकारियों से अन्न जल मिलता है, लड़की पराया धन है, वह जब शादी के बाद चली जाएगी तो उन्हें अन्न-जल कौन देगा? इसलिए पुरुषों को ही उत्तराधिकारी बनाया गया ताकि उन प्रेतात्माओं को हमेशा अन्न-जल मिलता रहे।”3

रमणिका गुप्ता ने लिखा है कि- “जब गैर आदिवासी समाज आदिवासी क्षेत्र में जमीनों के पट्टे लिखाकर और सूदखोर बनकर प्रवेश करने लगा तब से जमीनें और जंगल गैर आदिवासियों के पास हस्तांतरित होने शुरू हुए, विशेषतया झारखंड, छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में। तब से दूसरे समाज की सारी विकृतियाँ इस समाज में प्रवेश करने लगीं और सामूहिक प्रवृत्ति की जगह वर्चस्ववादी प्रवृत्ति की शुरूआत।”4

भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति से गहरे स्तर पर प्रभावित होते आदिवासी समाज में भी उन विकृतियों को जगह मिली और अन्य समाजों की तरह वहाँ भी स्त्री एक ‘वस्तु’ के रूप में परिवर्तित होने लगी। पितृसत्ता ने वहाँ भी अपनी कद काठी मजबूत कर ली। कुछ जगहों पर आज भी मातृसत्तात्मक व्यवस्थाएँ हैं लेकिन वह भी ‘रबर स्टाम्प’ की ही तरह काम करती हैं। “ऐसे में कई जनजातियों में आज भी मातृसत्ता जारी है लेकिन अधिकांशतः जनजातियाँ पितृप्रधान समाज को ही मानती हैं,  जहाँ मातृप्रधान सत्ता है, वहाँ भी गोत्र भले माँ के नाम से चलता है और कहीं कहीं सम्पत्ति की अधिकारी भी पुत्री होती है, इसके बावजूद उस समाज में भी पिता या मामा ही अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बात पुरुष की ही चलती है।”5 इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संविधान ने भी अपनी संतुष्टि दे दी है। अंग्रेजों  ने संथाली प्रधागत कानून को वैध ठहराते हुए संताली औरतों को जमीन पर अधिकार से वंचित कर दिया, आज जबकि आजादी के इतने साल बाद भी भारतीय संविधान में कितने संशोधन हुए, संथाली प्रथागत कानून में कोई बदलाव नहीं हुआ। इस वैज्ञानिक और तर्कसंगत समय में जब कई समुदाय विकास की नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं, संथाली समाज पूरी तरह से इस प्रथागत कानून में बँधा हुआ है जिसका सर्वाधिक नुकसान आदिवासी औरतों को हो रहा है।

आदिवासी समाज में भी स्त्रियों का शोषण करने के लिए विभिन्न तरह के तर्क पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने बनाए हैं । समाज ने स्त्रियों को कुछ काम करने से मना किया, उसके लिए पुरुष समाज ने यह तर्क दिया है कि शारीरिक बनावट के आधार पर यह विभाजन किया गया है। लेकिन ऐसा नहीं की आदिवासी समाज में पितृसत्ता को बनाए रखने के लिए यह तर्क दिया गया है। यह एक तरह से स्त्रियों के ऊपर अधिकार जताने जैसा ही है। आदिवासी समाज में स्त्रियों को हल चलाना, घर का छप्पर छाना और धनुष चलाना वर्जित है। इन चीजों पर अगर हम गौर करेंगे तो पाएँगे कि यह चीजें जमीन और सम्पत्ति की प्रतीक है और यह वर्जनाएँ इस बात का द्योतक हैं कि सम्पत्ति पर पुरुषों का ही अधिकार रहे। निर्मला पुतुल ने ‘सजोनी किस्कू’ नामक एक आदिवासी महिला को लेकर एक कविता लिखा है-
“बस! बस!! रहने दो।
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
मैं जानती हूँ सब
जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
जब तुमने चलाया था हल
तब डोल उठा था
बस्ती के माँझी-थान में बैठ देवता का सिंहासन
गिर गई थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठ
मगजहीन माँझी ‘हाड़ाम’ की पगड़ी
पता है बस्ती की नाक बचाने खातिर
तब बैल बनाकर हल में जोता था
जालिमों ने तुम्हें
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा।”6

निर्मला पुतुल की इस कविता में एक आदिवासी स्त्री की नियति का अंदाजा हमें आसानी से लग जाता है। संताली समाज ने सजोनी किस्कू को हल चलाने की सजा उसे खूँटे में बाँधकर भूसा खाने की दी थी, लेकिन वहीं संताली पुरुष यह भूल गए कि संताली विद्रोह के समय स्त्रियों ने ही हल जोतने से लेकर फसल काटने तक के सारे काम किए थे। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि पितृसत्तात्मक समाज ने सारे नियम अपने हितों के लिए बनाए हैं, जब मन करता है तो तोड़ देता है, जब मन करता है तो उसे लागू कर देता है। बिटिया मुर्मू इस प्रथागत कानून के विरूद्ध आवाज उठाती हैं
“आदिवासी समाज की स्त्रियों को उनके प्रथागत कानूनों के आधार पर संपत्ति के अधिकार से वंचित रहने देना सरासर अन्याय है। हो सकता है कि कानून परिवर्तन से सम्बन्धों में कुछ खटास पैदा हो या विरोध हो लेकिन यह भी सत्य है कि जब भी बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन हुआ या दबे कुचले लोगों को अधिकार मिला तो समकालीन जड़ समाज अपना आतंक फैलाता है पर सकारात्मक परिवर्तन के लिए समाज व कल्याणकारी सरकार को डटकर मुकाबला करना ही होगा।”7

संपत्ति के अधिकार से वंचित रखने का एक और तर्क जो आदिवासी पुरुष सत्ता द्वारा दिया गया कि स्त्रियों का विवाह गैर-आदिवासी से हो जाएगा तो वह जमीन गैर-आदिवासी की हो जाएगी। लेकिन यह तर्क मजबूत तर्क नहीं है। रमणिका गुप्ता ने इस तर्क के बारे में लिखा है कि- “आदिवासियों की जमीन दारू के बदले पुरुष समाज ही गैर आदिवासियों को हस्तान्तरित कर देते आया है। इसलिए उनका यह तर्क कि स्त्री को सम्पत्ति में हक मिल जाने से स्त्रियों द्वारा गैर-आदिवासियों के साथ विवाह करने पर जमीन का हस्तांतरण हो जाएगा गलत है। इस तर्क की काट तो कानून में छोटा सा संशोधन- कि स्त्री द्वारा गैर-आदिवासी से शादी करने के बाद जमीन की हकदार आदिवासी स्त्री और उसके बच्चे ही होंगे उसका पति नहीं, ला कर की जा सकती है।”30 रमणिका गुप्ता का यह सुझाव सही लगता है, पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को यह हजम नहीं होगा, इसलिए यह बात पूर्णतया सिद्ध हो जाती है कि आदिवासी समाज में भी पितृसत्ता का बोलबाला है।

आदिवासी समाज ने स्त्रियों को उतने ही अधिकार दिए हैं जितने से उसके हितों का हनन न हो। पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी समुदाय की स्त्री की हालत थोड़ी ठीक है। मेघालय का राज्य मातृ प्रधान सत्ता को मानता है। वहाँ खासी समाज में सम्पत्ति पर बेटियों का अधिकार होता है। बोडो  समाज में बेटियों को अधिकार मिले हुए हैं। इसी तरह से मिजो समाज में भी वंश माँ के गोत्र से ही चलता है, इतना ही नहीं “मिजोरम में स्त्री भी हल चलाती है।”8“असम के कार्बी समाज में स्त्रियों के श्राद्ध का रस्म का पूरा संचालन औरतों के हाथ में ही होता है।”9
झारखंड में आदिवासी समाज में ‘पौन प्रथा’ प्रचलन में है जिसमें पुरुष को ही वधू के लिए कन्या शुल्क देना पड़ता है, तभी उसकी शादी हो सकती है। उपरोक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आदिवासियों ने अपनी स्त्रियों को कुछ अधिकार तो दिए हैं जो सामान्यतः तथाकथित मुख्यधारा वाले समाज ने अपनी स्त्रियों को नहीं दिए हैं लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि आदिवासी समाज में स्त्रियों का शोषण नहीं होता। यहाँ शोषण के स्तर भिन्न हो सकते हैं।

आदिवासी महिलाएँ बहुत मेहनती और संघर्षशील होती हैं जिसका फायदा अन्य समाज के लोग उठाते हैं। आदिवासी समाज एनजीओ संस्थाओं के लिए वरदान की तरह है। आदिवासी इलाकों में एनजीओ सामाजिक विकास के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह फैले हैं। वहाँ उन केंद्रों पर आदिवासी महिलाओं को काम पर रखते हैं और उनका शोषण करते हैं। “आदिवासी बहुल इलाकों में फील्डवर्कर के रूप में लगभग 70 प्रतिशत कार्यकर्ता आदिवासी महिलाओं को बनाते हैं, बाकी 30 प्रतिशत गैर-आदिवासी स्त्री-पुरुष कार्यकर्ता है।”10 जो एनजीओ समाज को शोषण से मुक्ति दिलाने की बात करते हैं,  वहीं दूसरी तरफ खुद अपने कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं और यह शोषण केवल मानसिक स्तर पर नहीं होता बल्कि शारीरिक स्तर पर भी होता है। विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि उन महिलाओं की कहीं सुनवाई भी नहीं होती। आदिवासी स्त्रियों को उनके पति ग्राम-प्रधानों से पैसे लेकर बेच देते हैं और ग्राम प्रधान इन्हें शहरों में भेज देता है। निर्मला पुतुल ने इस प्रकार की एक स्त्री की नियति पर एक कविता लिखी है-
“कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों का गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को
हजार पाँच सौ हथेलियों पर रखकर
पिछले साल
धनकटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी
किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव?”10
इसी तरह गैर-आदिवासी पुरुष भी भोली-भाली आदिवासी स्त्रियों को शादी का झाँसा देकर देह शोषण करते हैं। फिर भाग जाते हैं।  आदिवासी स्त्रियों की यह हालत उनके अशिक्षित होने के नाते भी होता है। 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की साक्षरता दर लगभग 22% से कम है, जो अत्यन्त निराशाजनक है। आदिवासी स्त्रियों की इस हालत को शिक्षा के माध्यम से उनके अन्दर चेतना जगा कर सुधारा जा सकता है। हालाँकि आदिवासी स्त्री अन्याय के प्रति सदियों से जूझती आ रही है और आज भी लड़ रही है। आदिवासी स्त्रियाँ अपनी व्यथा अब खुद बयान करने लगी हैं। अब तक जो अनकहा था वह अब कहा जा रहा है। जरूरत है एक संगठित आवाज की जो समाज में क्रान्तिकारी बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करे और इसमें सरकार और विकास कार्यों की भूमिका भी महती होगी।

सन्दर्भ
1     पृ. 90, संपा. रमणिका गुप्ता: ‘युद्धरत आम आदमी’, पूर्णांक 80, दिसम्बर-2005
2. पृ. 94, वही
3. पृ. 57, सपा. सुधीर सुमन: ‘समकालीन जनमत’, अंक 2-3, वर्ष 22, सितंबर-2003
4 पृ. 64, श्याम चरण दुबे: ‘समय और संस्कृति’
5 पृ. 94, सपा. रमणिका गुप्ता- ‘युद्धरत आम आदमी’, पूर्णांक 80, दिसंबर-2005
6 पृ. 72, सपा. रमणिका गुप्ता- ‘युद्धरत आम आदमी’, पूर्णांक 55, 2001
7 पृ. 95, वही
8. पृ. 96, वही
9. पृ. 95, वही
10 पृ. 96, वही
11 पृ. 80, सपा. सुधीर सुमन: ‘समकालीन जनमत’, अंक 2-3, वर्ष 22, सितंबर-2003
12. संपादकीय से, संपा. रमणिका गुप्ता: ‘युद्धरत आम आदमी पूर्णांक 55, 2001

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